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________________ (123) है। इस प्रकार जैन परम्परा का मुक्ति प्राप्ति का सिद्धान्त सम्पूर्ण कर्म क्षय पर निर्धारित है। ये कर्म कौन-कौन से हैं? जिनका नाश मुक्ति के लिए अवश्यम्भावी है। कर्मसिद्धान्त __ जैन परम्परा यह मान्य करती है कि आत्मा के साथ कर्म अनादि काल से संलग्न है। जिस प्रकार खान में सुवर्ण एवं उपल (मिट्टी) एक दूसरे से संश्लिष्ट है, क्षीर-नीर की भांति समिश्रण है, उसी प्रकार जीव व कर्म भी परस्पर संयुक्त है। जैसे पुरुषार्थ एवं विभिन्न कसौटियों से सुवर्ण से उपल अलग किया जाता है, उसी प्रकार कर्मसंयोगी आत्मा भी बल-वीर्य पराक्रम से कर्म वियुक्त हो जाती है। एवं आत्मा अपने शुद्ध स्वरूप को प्राप्त कर लेती है। इस कर्मनाश में आत्मा का स्वयं का पुरुषार्थ ही अपेक्षित है। ईश्वरीयकृपा, दैवीयशक्ति, साक्षात्कार इसमें सहायक नहीं हो सकते। आत्मलाभ स्वयं के पुरुषार्थ पर ही निर्भर है। व्रत-तप संयम-निर्जरा कर्मनाश में सहायक होते हैं। मूल रूप से कर्म आठ हैं, किन्तु उनकी उत्तर प्रकृतियाँ अनेक हैं। इन आठ कर्मों में से चार कर्म घाती हैं तथा चार कर्म अघाती हैं। कोई जीव एक साथ आठ कर्मों (घाती एवं अघाती) का क्षय करके सिद्ध हो जाते हैं, तो कोई जीव पहले चार घाती कर्म एवं आयुष्य की पूर्णता के समय शेष चार अघाती कर्मों का क्षय करते हैं। अब हम इन कर्मों के स्वरूप के विषय में विचार करेंगे। अष्टकर्म जैन शास्त्रों में कर्म के मुख्य आठ भेद कहे गए हैं1.ज्ञानावरण 2. दर्शनावरण 3. वेदनीय 4. मोहनीय 5. आयु 6. नाम 7. गोत्र 8. अन्तराय 1. ज्ञानावरण-यह कर्म आत्मा की ज्ञानशक्ति को आच्छादित करता है। जैसे जैसे इस कर्म का जोर बढ़ता जाता है, वैसे वैसे यह ज्ञानशक्ति को अधिकाधिक दबाता जाता है। बुद्धि का अधिकाधिक विकास होने का मुख्य कारण इस कर्म 1. तत्त्वार्थ सूत्र 6.11-26
SR No.023544
Book TitlePanch Parmeshthi Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSurekhashreeji
PublisherVichakshan Smruti Prakashan
Publication Year2008
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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