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________________ (98) योगदर्शन में जीवन्मुक्त एवं ईश्वर बद्ध एवं मुक्त पुरुषों से भिन्न-पंतजली के अनुसार ईश्वर एक पुरुष विशेष है जो अविद्या, अस्मिता, राग, द्वेष अभिनिवेशादि क्लेशों एवं शुभ-अशुभ कर्मविपाक, रूप, जाति, आयु तथा भोग-वासना से रहित है। वर्तमानकाल में जो पुरुष मुक्त हैं उनसे यह भिन्न है। क्योंकि वे या तो उस अवस्था से पूर्व बंधन में थे पश्चात् उसका उच्छेद करके मुक्त बने अथवा अन्य मुक्त पुरुष वे हैं, जो निश्चित अवधि के लिए कैवल्य का सा अनुभव कर पुनः संसार चक्र में आ जाते हैं यथा-विदेह एवं प्रकृतिलय। ईश्वर इन दोनों ही प्रकार के मुक्त पुरुषों से भिन्न है, क्योंकि न कभी वह बंधन में था और होगा। इस प्रकार केवली से ईश्वर में भिन्नता है। ईश्वर सर्वज्ञ है___ईश्वर का उत्कर्ष शाश्वत है, नित्य है। वह त्रिकाल सर्वज्ञ है। तात्पर्य यह है कि वह तीनों काल में प्रकृष्ट सत्त्व अर्थात् शुद्ध सात्विक चित्त धारण करता है। उसकी सर्वज्ञता का प्रमाण क्या है? तो उल्लेख है-शास्त्र! और शास्त्र का प्रामाण्य ? तो कथन है कि वह सर्वज्ञकृत है। इस प्रकार सर्वज्ञता शास्त्र से और शास्त्र की सिद्धि सर्वज्ञता मानने पर परस्पर सापेक्षता तथा अन्योन्याश्रय दोष की शंका होती है। इसका समाधान करते हुए कहा है कि यहाँ यह दोष रूप नहीं, क्योंकि शास्त्र और सर्वज्ञता का सम्बन्ध अनादि है। जिस प्रकार अंकुर और बीज के सम्बन्ध में अन्योन्याश्रय-परस्पर सापेक्ष दोष नहीं है, क्योंकि वे अनादि है। इसी प्रकार ईश्वर भी अनादि सर्वज्ञ है। योगी भी सर्वज्ञ हो सकता है, क्योंकि सर्वज्ञत्व की प्राप्ति होने के कारण। किन्तु ईश्वर तो अनादि सर्वज्ञ है। ईश्वर सर्वाधिक ऐश्वर्य संपन्न ईश्वर का ऐश्वर्य अनुपम है, तारतम्यरहित है। वाचस्पति मिश्र का मत है कि 1. योग सू. 1.24 3. योग भाष्य 1.24 5. यो. भा. 1.24 2. व्यास भाष्य पृ.६६ 4. योग सू. 1.25 6. योग सू. 1.25
SR No.023544
Book TitlePanch Parmeshthi Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSurekhashreeji
PublisherVichakshan Smruti Prakashan
Publication Year2008
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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