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________________ अरहन्त परमेष्ठी है। जहां खड़े होकर इन्द्र आदि देवगण भगवान् का पूजन करते हैं।' समवसरण के बाहरी भाग में रत्नों कीधूली से बना हुआ एक धूलीसाल नाम का घेरा होता है। इस धूलीसाल के बाहर चारों ओर सुवर्णमय खम्भों के अग्रभाग पर अवलम्बित चार तोरण द्वार सुशोभित होते हैं। धूलीसाल के भीतर ही कुछ दूरी पर निर्मित चार मानस्तम्भ चारों दिशाओं में ऐसे सुशोभित होते हैं मानों भगवान् के अनन्त चतुष्टय ही मूर्तिमान हो रहे हों। मुनिसुव्रतकाव्यकारकी दृष्टि में घातियाकर्मोंकाक्षय करके जिनेन्द्र नेमानस्तम्भ के रूप में प्रत्येक दिशा में विजयस्तम्भ स्थापित किए थे। इन स्वर्णमय मानस्तम्भों के मूलभाग में जिनेन्द्र भगवान् की सुवर्णमय प्रतिमाएं विराजमान थीं, जिनकी इन्द्र आदि क्षीर सागर के जल से अभिषेक करते हुए पूजा करते थे हिरण्यमयी जिनेन्द्रााः तेषां बुध्नप्रतिष्ठिताः। देवेन्द्राः पूज्यन्तिस्म क्षीरोदाम्भोषिषेचनैः।। इन्हीं मानस्तम्भों के मस्तक पर तीनछत्र ढल रहे थे। इन्द्र के अरा बनाए जाने के कारण उनका अपर नाम इन्द्रध्वज भी रूढ़ हो गया था मानस्तम्भान महामानयोगात् त्रैलोक्यमाननात् / अन्वर्थसंज्ञयो तज्ज्ञैर्मनस्तम्भाः प्रकीर्तिताः / / मानस्तम्भ के आस-पास में बावड़ियां होती हैं। इसके भीतरी भूभाग को घेरे हुए लतावनों में सभी ऋतुओं के फूल सुशोभित होते हैं। लतावनों के भीतर की ओर एक सुवर्णमय पहला कोट होता है जो इस समवसरण भूमि को चारों तरफ से घेरे रहता है।१० उस सुवर्णमय कोट के चारों और चांदी के बने हुए गोपुरद्वार होते हैं / 1. दे०-(बलभद्र जैन), जैनधर्म का प्राचीन इतिहास, भाग-१, पृ०५६ 2. तत्पर्यन्तभूभागं अलञ्चक्रे, घूलीसालपरिक्षेपो रत्नपांसुभिराचितः / आदि०, 22.81 3. चतसृष्वपि दिक्ष्वस्य हेमस्तम्भाग्रावलम्बिता तोरणा। वही, 22.61 4. आदि०, 22.67 5. स्तम्भाः जयादय इव प्रभुणा निखाताः / स्तम्भाः बभुः प्रगिदिशं किल मानपूर्वाः / / मुनिसुव्रतकाव्य 10.31 6. वही, 22.68 7. वही, 22.102 8. वही, 22.103 6. वही, 22.118 10. वही, 22.128 11. महान्ति गोपुराण्यस्य विबभुर्दिक्चतुष्टये।। वही, 22.136
SR No.023543
Book TitleJain Darshan Me Panch Parmeshthi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJagmahendra Sinh Rana
PublisherNirmal Publications
Publication Year1995
Total Pages304
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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