________________ अजर-अमर पद को उपलब्ध कर सकता है। कल्पसूत्र में लिखा है कि नवकार महामंत्र के एक अक्षर के जाप व आराधन से सात सागरोपम के पाप नष्ट हो जाते हैं और सम्पूर्ण मंत्र के जाप से पांच सौ सागरोपम के पाप क्षय हो जाते है। 108 बार जाप करने से जिनवाणी के स्वाध्याय का पुण्य जहां प्राप्त होता है वहां साधक का मन, चित्त, लेश्या, अध्यवसाय, व आत्मा का उपयोग इसी मंत्र द्वारा केन्द्रित हो जाता है। नवकार मंत्र में नवपद है, इसलिए इसे नवकार मंत्र कहते हैं। पांच पद-अरिहन्त, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय व साधु ,तो मूल पदों के हैं और चार पद चूलिका के इस प्रकार कुल नौ पद होते हैं। एक अन्य जैन परम्परा नौ पद को अन्य प्रकार से स्वीकार करती है। पांच पद तो मूल के मानती है और चार पद ज्ञान, दर्शन, चरित्र व तप को मानती है। इस परम्परा में अरिहन्त और पांच-पांच पद साधक तथा सिद्ध भूमिका के हैं और अन्तिम चार पद साधना के सूचक है। ज्ञानादि की साधना द्वारा ही साधक आध्यात्मिक जीवन में विकास करता हुआ अर्हत् पद को उपलब्ध होता है, तत्पश्चात् अजर-अमर, अविनाशी, सिद्ध हो जाता है। इन गुणों को नमस्कार करके वास्तव में जैन धर्म ने गुणपूजा का महत्त्व ही प्रकट किया है। दोनों परम्पराओं के द्वारा नव पद होते हैं और इसी कारण मंत्र का नाम नवकार है। नवकार मंत्र का अपर नाम परमेष्ठी मंत्र है। जो महान् आत्माएं समभाव में स्थित होकर उच्च पद पर अवस्थित रहती हैं वे परमेष्ठी मानी गई हैं। परमेष्ठी शब्द को अर्हत् का वाचक भी माना गया है। अर्हत की परिणति सिद्ध रूप में होती है। इस दृष्टि से यह अर्हत और सिद्ध दोनों पदों का वाहक है। आचार्य व उपाध्याय अर्हतों के प्रतिनिधि होते है, अर्हतों की अनुपस्थिति में उनका कार्य वे स्वयं करते हैं इसलिए आचार्य व उपाध्याय को परमेष्ठी मान लिया गया। अब प्रश्न रहा साधुओं का, इसका सीधा सम्बन्ध है- अर्हत् हो, आचार्य हो, उपाध्याय हो वे सर्वप्रथम साधु है, पश्चात् और कुछ। वास्तव में साधु ही परमेष्ठी का रूप है। साधु अर्हत् बनने की साधना कर रहा है, इस दृष्टि से वह परमेष्ठी बन जाता है। वैसे सिद्ध और साधु इन पदों में पांचों पदों का समावेश हो जाता है फिर भी पांचों पदों का स्वतन्त्र अमूल्य अस्तित्व है। इसलिए जिन परमेष्ठी आत्माओं को नमस्कार किया गया हो, वह मंत्र परमेष्ठी मंत्र कहलाता है। परमेष्ठी पंचक में प्रारम्भ के दो पद देव कोटि के अन्तर्गत आते है और अन्तिम तीन पद गुरु कोटि में आते है। सात्त्विक प्रमोद का विषय है कि श्रीयुत् डॉ. जगमहेन्द्रसिंह राणा ने परमेष्ठी मंत्र की शब्द व विकास की यात्रा का अनुशीलन व परिशीलन करके विद्वत्जगत व शोध जिज्ञासुज्ञों के लिए एक प्रशस्त चिन्तन प्रस्तुत किया है। अतः वे साधुवाद के पात्र है / इस शोध प्रबन्ध का प्रकाशन भी समभाव की उच्चस्थिति में स्थित रही महानात्मा, प्रज्ञापुरूष व