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________________ जैन दर्शन में पञ्च परमेष्ठी जिनकी इन्द्रियांशान्त हैं, जिनकाअभिमाननष्ट हो गया हैऔरजोआस्रव-रहित हैं, ऐसे उन अरहन्तों से देवता भी स्पृहा करते हैं।' आगे यहीं अर्हत् को ब्राह्मण भी कहा गया है। ऐसे अर्हत् ब्राह्मण के स्वरूप को स्पष्ट करते हुए स्वयं बुद्ध कहते हैं कि 'जिसकी गति को मनुष्य तो क्या देवता और गन्धर्व भी नहीं जानते, जो क्षीणास्रव हैं, ऐसा अर्हत् विशेष ही ब्राह्मण है। जिसके पूर्व, पश्चात् और मध्य में कुछ भी नहीं है, जो परिग्रहरहित हैं, वही अर्हत् अथवा ब्राह्मण है। अन्ततः वे कहते हैं कि 'जो पूर्व जन्म को जानता है, स्वर्ग और नरक को भी जो देखता है, जिसका जन्म क्षीण हो गया है और जो दिव्य ज्ञान-परायण है, वही ब्राह्मण है, वही अर्हत् भी है'। मिलिन्दपञ्ह में कहा गया है कि जिनके आस्रवक्षीण हो गए हैं, जिनके ब्रह्मचर्यवास पूरे हो गए हैं, जो कृतकृत्य हैं, जिनका पूर्णरूपसे भार उतर गया है, जो सच्चे ज्ञान को प्राप्त कर चुके हैं, जिनके भव-बन्धन बिल्कुल नष्ट हो गए हैं, जिनका चित्त पूर्णतः परिशुद्ध हो गया है, ऐसे अरहन्तों का चित्त दूसरों के मन की बातों को जानने में हल्का और तेज होता है। वे दूसरों के मनों की रहस्यपूर्ण बातों को जानने में भी समर्थ होते हैं। विसुद्धिमग्ग के सप्तम परिच्छेद में भी अर्हत् की विशेष रूप से व्याख्या की गई है। यहां पर उसे सब क्लेशों से रहित, शत्रुओं और संसार चक्र की आराओं को विनष्ट कर देने वाला, चीवर आदि प्रत्ययों 6 को धारण करने. योग्य और पाप को न छिपाने वाला बतलाया गया है। वे समस्त क्लेशों से 1. यस्सिन्द्रियानि समथं गतानि, अस्सा यथा सारथिना सुदन्ता। पहीनमानस्स अनासवस्स, देवापि तस्स पिहयन्ति तादिनो।। वही, गा०६४ 2. यस्स गति न जानन्ति देवा गन्धबमानुसा। रवीणासवं अरहन्तं तमहं ब्रूमि ब्राह्मणं / / धम्म, गा० 420 3. यस्स पुरे च पच्छा च मज्झे च नत्थेि किञ्चनं / अकिंचनं अनादानं तमहं ब्रूमि ब्राह्मणं / / वही, गा०४२१ 4. पुवेनिवासं यो वेदि सग्गापायञ्च पस्सति। अथो जातिक्खयं पत्तो अभिञआवोसितो मुनि, 'सव्ववोसितबोसानं तमहं ब्रूमि ब्राह्मणं / / वही, गा. 424 5. दे. मिलिन्दपञ्ह (हिन्दी अनु०), पृ. 132-33 6. चीवर (वस्त्र) पिण्डपात (आहार), सेनासन (शय्यासन) और गिलानपच्चयमेसज्ज (औषधि) ये चार वस्तुएं बौद्ध साधु के लिए एषणीय बतलाई गयी हैं। दे.विसुद्धि. 1.86-66 7. तत्थ, आरकत्ता, अरीनं अराञ्च हतत्ता, पच्चयादीनं अरहत्ता, पापकरणे रहाभावा ति, इमेहि ताव कारणेहि सो भगवा अरहंति अनुस्सरति / / वही, 7.4
SR No.023543
Book TitleJain Darshan Me Panch Parmeshthi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJagmahendra Sinh Rana
PublisherNirmal Publications
Publication Year1995
Total Pages304
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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