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________________ साधु परमेष्ठी 247 (23) शून्यगृह : सूने घर में जैसे सफाई, सजावट आदि के संस्कार नहीं होते, उसी प्रकार साधु भी शरीर का संस्कार नहीं करता, वह बाह्य शोभा-संस्कार का त्यागी होता है। (24) दीपक : निर्वात स्थान में जैसे दीपक स्थिर-अकम्पित रहता है, उसी प्रकार साधु भी एकान्त स्थान में रहता हुआ, निर्मल चित्त से युक्त हुआ उपसर्गों के आने पर भी ध्यान से चिलित नहीं होता। (25) क्षुरधारा: जैसे उस्तरे की एक ही ओर धारा होती है, वैसे ही साधु भी त्यागरूप एक ही धार वाला होता है। (26) सर्प: जिस प्रकार सर्प स्थिर दृष्टि अर्थात् अपने लक्ष्य पर ही दृष्टि बनाए रखता है, उसी प्रकार साधु भी अपने मोक्षरूपीध्येय पर ही दृष्टि टिकाए रखता है, अन्यत्र नहीं। (27) पक्षी: जैसे पक्षी स्वतन्त्र होकर उन्मुक्त विहार करता है, उसी प्रकार साधु भी स्वजन आदि या नियत वास आदि के प्रतिबन्ध से मुक्त होकर स्वतन्त्र विचरण करता है। (28) आकाश: आकाश जैसे निरालम्ब (आश्रय रहित) होता है, वैसे ही साधु भी कुल, नगर, ग्राम आदि के आश्रय से रहित होता है। (29) पन्नग: सांप जैसे स्वयं घर नहीं बनाता है, चूहे आदि के द्वारा बनाए हुए बिलों में ही निवास करता है, उसी प्रकार साधु स्वयं मकान नहीं बनाता, गृहस्थों के द्वारा बनाए हुए मकानों में ही (उनकी अनुमति पाकर)रहता है। (30) वायु: जैसे वायु की गति प्रतिबन्धरहित है, उसी प्रकार साधु भी प्रतिबन्ध रहित होकर स्वतन्त्र विचरण करता है। (71) जीवगति: जिस प्रकार परभव जाते हुए जीव की गति में कोई रुकावट नहीं होती, उसी प्रकार स्व-पर सिद्धान्त का जानकार,वाद आदिसामर्थ्य वाला साधुभी निशंक होकर अन्य तीर्थियों के देश में धर्म-प्रचार करता हुआ विचरता हैं।
SR No.023543
Book TitleJain Darshan Me Panch Parmeshthi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJagmahendra Sinh Rana
PublisherNirmal Publications
Publication Year1995
Total Pages304
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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