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________________ 240 जैन दर्शन में पञ्च परमेष्ठी 22. दर्शनपरीषहजय : _ 'परलोक नहीं है, तपसे ऋद्धि की प्राप्ति नहीं होती है, मैं साधुधर्म लेकर ठगा गया हूं, तीर्थंकर न थे, न हैं और न ही आगे होंगे-इस तरह धर्म में अविश्वास उत्पन्ननहोनेदेनाहीदर्शनपरीषहजय है। भावयह है कि सा I की अपने धर्म के प्रति प्रगाढ़ श्रद्धा होनी परमावश्यक है। इस प्रकार साधु उपर्युक्त 22 परीषहों में से किसी भी परीषह का प्रसंग उपस्थित होने पर उसे शान्ति से समतापूर्वक सहन करे, उस पर विजय प्राप्त करे, इसी से साधुता दीप्त होती है। (आ) सल्लेखना : सल्लेखना का अर्थ है-समतापूर्वक कायऔर कषायों को कृश करना। रोग आदि के कारण या कठोर तपस्या के कारण शरीर के समयोचित क्रियाएं करने में असमर्थ हो जाने पर आहार का संवर्तन (=संक्षेप) करते हुए तथा कषायों को कृश करते हुए और समाधि में भावनाओं का चिन्त्वन करते हुए मृत्यु को अंगीकार करने के लिए उद्यत हो जाना ही सल्लेखना है। रत्नकरण्डकश्रावकाचार में भी बतलाय गया है कि देवादिकृत प्रतीकार सहित उपसर्ग, दुर्भिक्ष, बुढापा और रोग के उपस्थित होने पर धर्म के लिए शरीर छोड़ने को सल्लेखना कहा जाता है। इसका सीधे शब्दों में अर्थ होता है कि अन्तिम समय में आहार आदि का त्याग कर समाधिपूर्वक मृत्यु प्राप्त करना इस दृष्टि से सल्लेोना प्राणान्त अनशन विशेष है। सल्लेखना को सकाममरण एवं पंडितमरण भी कहा जाता है क्योंकि इसकी प्राप्ति संयत और जितेन्द्रिय पुण्यात्माओं को इच्छापूर्वक (=सकाम) होती है तथा वे मृत्यु के समय में भी पूर्ववत् प्रसन्न ही रहते हैं।" 1. 'नत्थि नूणं परे लोए इड्ढी वावि तवस्सियो। अदुवा वचिओ मित्ति इइ भिक्खू न चिन्तए।। 'अभू जिणा अत्थि जिणा अदुवावि भविस्सई। ___ मुंस ते एवमाहंसु' इइ भिक्खू न चिन्तए।। वही, 2.44-45 2. तेनायमर्थः-यत् सम्यक् लेखना कायस्य कषायाणां च कृशीकरणं तनूकरणं सल्लेखना। त० वृ०७.२२, पृ०२४६ 3. विशेष के लिए दे०-आयारो, 8.6.105 4. उपसर्गे दुर्मिक्षे जरसि रुजायां च निःप्रतीकारे। धर्माय तनुविमोचनमाहुः सल्लेखनामार्याः / / रत्नक० 5.1 50 दे०- (मेहता), जैन, धर्म-दर्शन, पृ०५५८ / / 6. एत्तो सकाम-मरणं पण्डियाणं सुणेह में / उ०५.१७ 7. (क) मरणं पि सपुण्णाण जहा मेयमणुस्सुयं।। विप्पसण्णमणाधायं संजयाणं दुसोमओ।। वही, 5.18 (ख) न संतसन्ति मरणन्ते सीलवन्ता बहुस्सुया। वही, 5.26
SR No.023543
Book TitleJain Darshan Me Panch Parmeshthi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJagmahendra Sinh Rana
PublisherNirmal Publications
Publication Year1995
Total Pages304
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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