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________________ साधु परमेष्ठी 235 मिथ्यात्व का स्थिरीकरण होता है। उसे पाप का अनुमोदन करने वाली और जीवघातकारक भाषा नहीं बोलनी चाहिए। क्रोध, लोभ और भयवश न बोले / दूसरों की हंसी करता हुआ भी न बोले।' उसे सदैव अदुष्ट भाषा ही बोलनी चाहिए। साधु को हितकारी एवं आनुलौमिक वचन बोलने चाहिए। वह सदैव प्रयोजनवश और परिमित बोले / बिना पूछे न बोले और किसी के बीच में न बोले / उसे किसी की चुगली नहीं करनी चाहिए तथा कपटपूर्ण असत्य वचन भी नहीं बोलने चाहिए। साधु ऐसा भी न बोले जिससे दूसरे को अप्रीति उत्पन्न हो और वह व्यक्ति कुपित हो जाए।६ देखी हुई बात कहे, जोर से बोलना भी निषिद्ध है। उसे स्वर-व्यञ्जन आदियुक्त स्पष्ट भाषा बोलनी चाहिए तथा कलह उत्पन्न करने वाली बात भी नहीं करनी चाहिए।' इस प्रकार साधु के सामान्य आचार में पंच महाव्रत, षडावश्यक तथा आठ प्रवचन माताओं का पूर्णतया पालन किया जाता है। इसके अतिरिक्त सामाचारी, बाह्य उपकरण, उपाश्रयच एवं भिक्षाचर्या आदि के विषय में भी विशेष सावधानी से काम लिया जाता है ताकि किसी प्रकार से संयम की विराधना न हो, संयम का सम्यक् परिपालन होता रहे। (2) विशेष साध्वाचार : विशेष अवसर पर कर्मों की विशेष निर्जरा करने के लिए साधु जिस प्रकर के सदाचार का पालन करता है, उसे विशेष साध्वाचार के अन्तर्गत लिया जाता है. यह विशेष साध्वाचार सामान्य साध्वाचार से सर्वथा पृथक नहीं है, बल्कि जब साधु अपने सामान्य साध्वाचार का ही विशेष रूप से दृढ़ता के साथ पालन करता है तब उसे ही विशेष साध्वाचार का नाम दे दिया जाता है। इसके अन्तर्गत निम्न क्रियाएं विचारणीय हैं. 1- तपश्चर्या 2- साधु की प्रतिमाएं 1. वही, 7.54 2. वही, 7.55 3. वही.७.५६ 4. वही, 8.16 5. वही, 8.46 6. वही, 8.47 7. वही, 8.48 8. वही, 10.10 -
SR No.023543
Book TitleJain Darshan Me Panch Parmeshthi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJagmahendra Sinh Rana
PublisherNirmal Publications
Publication Year1995
Total Pages304
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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