________________ 2. साधु परमेष्ठी 203 फिर, माता-पिता एवं अन्य सम्बन्धी उसे गुरु के पास लेकर जाते हैं तथा उसकी दीक्षा के लिए प्रार्थना करते हैं। जब गुरु महाराज दीक्षा की अनुमति दे देते हैं तो एक तरफ जाकर उसके सभी आभूषण इत्यादि उतार दिए जाते हैं, गृहस्थवेश का परित्याग कर मुनिवेश धारण किया जाता है। तदनन्तर दीक्षार्थी के द्वारा स्वयं पंचमुष्ठि लोंच किया जाता है। / उसके बाद गुरु के सामने उपस्थित होकर 'तिक्खुत्तो' पाठ के द्वारा तीन बार आदक्षिणा-प्रदक्षिणा करके विधिपूर्वक गुरु वन्दना की जाती है। दीक्षार्थी के सांसारिक भोगों की निन्दा करते हुए संयम मार्ग पर आरूढ़ होने के लिए निवेदन करने पर स्वयं गुरु उसे प्रव्रजित करते हैं। सबसे पहले पंच परमेष्ठीकानाम (=नमस्कारमहामन्त्रको)सुनाया जाता है। फिर 'इच्छाकारेण'१ इस पाठ को पढकर'तस्स उत्तरीकरणेणं पाठ के द्वारा क्षेत्र-विशुद्धि के लिए कायोत्सर्ग कराया जाता है। पुनः ‘लोगस्स' पाठ सुनाकर करेमि मन्ते पाठ 1. आवस्सई इच्छाकारेण संदिसह भयवं / देवसियं पडिक्कमणं ठाएमि देवसियनाण-दंसण-चरित-तव-अइयार-चिंतवणठं करेमिकाउस्सगं / श्रमण प्रतिकमण, 1.1 तस्सउत्तरीकरणेणंपायच्छितकरणेणं विसोहिकरणेणं विसल्लीकरणेणं पावाणं कम्माणं निग्घायणट्ठाए ठामि काउस्सगं अन्नत्थ अससिएण नीससिएणं खासिएणं छीएणं जमाइएणं उड्डुएणं वायनिसग्गणं भमलीए पित्तमुच्छाए सुहुमेहिं अंगसंचालेहिं सुहुमेहिं खेलसंचालेहिं सुहुमेहिं दिट्ठिसंचालेहिं एवमाइएहिं आगारेहिं अभग्गो अविराहिओ होज्ज मे काउस्सग्गो जाव अरहंताणं भवंताणं नमोक्कारेणं न पारेमि तावकायं ठाणेणं मोणेणं झाणेणं अप्पाणं वोसिरामि / आवस्सयं, 5.3 लोगस्स उज्जोयगरे, धम्मतित्थयरे जिणे। अरिहंते कितइस्सं चउविसंपि केवली।। उसभजियंचवंदे,संभवमाभिनंदणंचसुमहंच। पउप्पहंसुपासं, जिणंच चंदप्पहं वंदे / / सुविहिं च पुष्पदंतं सीअल सिज्जंस वासुपुज्जंच। विमलमणंतं च जिणं,धम्म संतिंच वंदामि।। कुन्थुअरंच मल्लिं वंदे मुणिसुव्वयं नमिजिणंच। वदामि रिठेनमि,पासंतह वद्धमाणंच।। एवंमएअमिथुआ, विहुय-रयमला पहीण-जरमरणा। चउविसंपिजिणवरा, तित्थयरामेपसीयंतु।। कितियवंदिय मएजेएलोगस्स उत्तमा सिद्धा। आरोग्ग-बोहिलाभ,समाहिवरमुत्तमंदितु।। चंदेसु निम्मलयरा,आइच्चेसुअहियं पयासयरा। सागरवरगंभीरा, सिद्धा सिद्धिं मम दिसंतु।।वही, 2.1 4. करेमिभंते / सामाइयं-सव्वं सावज्जंजोगं पच्चक्खामि, जावज्जीवाए तिविहं तिविहेणं-मणेणं वायाएकाएणं न करेभिन कारवेमिकरंतं पि अन्न न समणुजाणामि, तस्सभंते पडिक्कमामि निंदामि गरिहामि अप्पाणं वोसिरामि।आवस्सयं,१.२