________________ साधु परमेष्ठी 193 किसी तरह का राग है और न किसी प्रकार का द्वेष है,जो सबके प्रति समदृष्टि है। जो लाभ-अलाभ, मान-अपमान, निन्दा-प्रशंसा तथा सुख-दुःख में भी समभाव रखता है। इस प्रकार का वह साधु सब प्रकार के परिग्रह से रहित होकर, संसारियों से किसी प्रकार का परिचय न रखते हुए संयम की आराधना करता हुआ एकाकी विचरण करता है। (ख) साधु के लिए प्रयुक्त विशिष्ट शब्द : जैन दर्शन में साधु के लिए अनेक शब्द प्रयुक्त होते हैं। इनमें साधु, संयत, विरत, अनगार, ऋषि, मुनि, यति, व्रती,योगी एवं तपस्वी इत्यादि प्रमुख हैं / तीर्थंकर भगवान् ने इन्द्रियों का दमन करने वाले, मोक्षगमन के योग्य तथा काया का व्युत्सर्ग करने वाले साधु के चार नाम बतलाए हैं'-(1) माहन, (2) श्रमण. (3) भिक्षु और (4) निर्ग्रन्थ / ये चारों साधु के स्वरूप पर समुचित प्रकाश डालते हैं। (1) माहन : जो समस्त पापकर्मों से विरत हो चुका है, किसी से राग-द्वेष तथा कलह नहीं करता, किसी पर मिथ्या दोषारोपण तथा किसी की चुगली भी नहीं करता और दूसरे की निन्दा से परे रहता है। जो संयम में अप्रीति, असंयम से प्रीति तथा छल-कपट नहीं करता एवं कपटयुक्त असत्य वचन भी नहीं बोलता है, जो मिथ्यादर्शन रूपी शल्य से विरत है, पांच समितियों से सम्पन्न है, कषायरहित है एवं जितेन्द्रिय है, वह माहन कहलाता है। (2) श्रमणः जो साधु-पूर्वोक्त गुणों से युक्त है वह श्रमण भी कहलाता है। श्रमण साधु के लिए आगम में कुछ और भी गुण बतलाए गए हैं वे हैं--शरीर, मकान, वस्त्र, पात्र आदि किसी भी पदार्थ में आसक्त न होना, अनिदान अर्थात् इहलौकिक एवं पारलौकिक सांसारकि विषयभोगरूप फल की आकांक्षा से विरहित होना, हिंसा, मृषावाद, मैथुन और परिग्रह से निवृत्त होना एवं चतुर्विध कषाय का सर्वथा त्याग करना / इस प्रकार जिन-जिन कारणों से आत्मा दूषित होती है, उन-उन कर्म-बन्धन के कारणों से जो पहले से ही निवृत्त है 1. अहाह भगव-एव से दर्त दविए वासट्ठकाए तिवच्चे-(१) माहणेत्ति वा, (2) समति वा, (3) भिक्खूति वा, (4) निग्गंथेति वा / सूयगड़ो-२सू. 16.1 . इति विरतसव्वपावकम्मेण्णथेज्ज-दास-कलह-अब्भक्खाण-पेसुणा-परपरिवाद अरति- रति मायामोस - मिच्छादंसणसल्ल-विरते, समियए सहिए सया जए, णो कुज्झे णो माणी माहणेति बच्चे / वही, सू० 16.3