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________________ उपाध्याय परमेष्ठी 181 पहले दो शुक्ल ध्यानों का आश्रय एक है अर्थात् उन दोनों का आरम्भ पूर्वज्ञान धारी आत्मा द्वारा होता है। इसीलिए ये दोनों ध्यान वितर्क सहित होते हैं। दोनों ध्यानों में वितर्क का साम्य होने पर भी यह वैषभ्य है कि पहले में पृथक्त्व (भेद) है, जबकि दूसरे में एकत्व (अभेद) है। इसी प्रकार पहले में विचार है', जबकि दूसरे में विचार नहीं है। इसी कारण इन दोनों ध्यानों के नाम क्रमशः पृथक्त्ववितर्क-सविचार और एकत्ववितर्कनिर्विचार हैं। (अ) पृथक्त्ववितर्क-सविचार : - जब ध्यान करने वाला पूर्वधर हो तब वह पूर्वगत श्रुत के आधार पर और जब पूर्वधर न हो तब अपने में सम्भावित श्रुत के आधार पर किसी भी परमाणु आदिजड़ में या आत्मरूपचेतन में-एक द्रव्य में उत्पत्ति, स्थिति, नाश, मूर्तत्व, अमूर्तत्व आदि अनेक पर्यायों का द्रव्यास्तिक,पर्यायास्तिक आदि विविध नयों के द्वारा भेद प्रधान चिन्तन करता है और यथासम्भव श्रुतज्ञान के आधार पर किसी एक द्रव्यरूप अर्थ से दूसरे द्रव्यरूप अर्थ पर, या एक द्रव्य रूप अर्थ पर से पर्यायरूप अन्य अर्थ पर, अथवा एक पर्यायरूप अर्थ पर से अन्य पर्यायरूप अर्थ पर, या एक पर्याय रूप अर्थ पर से अन्य द्रव्यरूप अर्थ पर चिन्तन के लिए प्रवृत्त होता है। इसी प्रकार अर्थ पर से शब्द पर और शब्द पर से अर्थ पर चिन्तन के लिए प्रवृत्त होता है तथा मन आदि किसी भी एक योग को छोड़कर अन्य योग का अवलम्बन लेता है, तब वह ध्यान पृथक्त्ववितर्क-सविचार कहलाता है। (आ) एकत्ववितर्क-निर्विचार : उक्त प्रक्रिया के अवपरीत जबध्यान करने वाला अपने में सम्भाव्य श्रुत के आधार पर किसी एक ही पर्यायरूप अर्थ को लेकर उस पर अभेद प्रधान (एकत्व) चिन्तन करता है और मन आदि तीन योगों में से किसी एक ही योग पर अटल रहकर शब्द और अर्थ के चिन्तन एवं भिन्न-भिन्न योगों में संचार का परिवर्तन नहीं करता, तब वह ध्यान एकत्ववितर्क-निर्विचार कहलाता है। प्रथम भेदप्रधान ध्यान का अभ्यास दृढ़ हो जाने के बाद ही इस ध्यान की योग्यता प्राप्त होती है। - (इ) सूक्ष्मक्रियाप्रतिपाती: जब सर्वज्ञ भगवान् योग निरोध के क्रम में अन्ततः सूक्ष्मशरीर योग का 1. शुक्लेचाये पूर्वविदः / त. सू.. 6.36 2. वितर्कः श्रुतम् / वही, 6.45 3. एकाश्रये सवितर्के पूर्वे / वही, 6.43 4. विचारोऽर्थव्यञ्जनयोगसक्रान्तिः / त.सू. 6.46 5. यह क्रम इस प्रकार है-स्थूल काययोग के आश्रय से वचन और मन के स्थूल योग को सूक्ष्म बनाया जाता है, उसके बाद वचन और मन के सूक्ष्म योग को अवलम्बित करके शरीर के स्थूल योग को सूक्ष्म बनाया जाता है। फिर शरीर के सूक्ष्मयोग को अवलम्बित करके वचन और मन के सूक्ष्म योग का निरोध किया जाता है और अन्त में सूक्ष्मशरीर योग का भी निरोध किया जाता है। (संघवी). त.सू.. पृ. 230, पा. टि.१ mॐ ॐ
SR No.023543
Book TitleJain Darshan Me Panch Parmeshthi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJagmahendra Sinh Rana
PublisherNirmal Publications
Publication Year1995
Total Pages304
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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