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________________ 176 जैन दर्शन में पञ्च परमेष्ठी आचार्य हैं। (2) उपाध्याय : जिनके पास आत्मकल्याण के लिए शास्त्रों का अध्ययन किया जाता है वे उपाध्याय हैं। (3) तपस्वी : जो महोपवास आदि तपों को करते हैं वे तपस्वी कहलाते हैं। (4) शैक्ष: जो नवदीक्षित मुनि शास्त्रों के अध्ययन में तत्पर रहते हैं उन्हें शैक्ष कहा जाता है। (5) ग्लान : जिस मुनि का शरीर रोग आदि से पीड़ित हो उसे ग्लान कहते हैं। (6) गण: वृद्ध मुनियों के समूह को गण कहा जाता है। (7) कुल: एक ही दीक्षाचार्य का शिष्य-परिवार कुल कहलाता है। (E) संघ: साधु-साध्वी और श्रावक-श्राविका रूपी समुदाय जो कि एक ही घर्म का अनुयायी है, संघ कहलाता है। (6) साधुः जो चिरकाल से दीक्षित हो वह साधु है / (10) समनोज्ञ: वक्तृत्व आदि गुणों से सुशोभितऔर लोगों द्वारा प्रशंसित मुनि समनोज्ञ कहलाता है। वैयावृत्त्य तप बड़ा गुणकारी है। इस तप से मूल लाभ तो यह है कि इसके परिपालन से साधक तीर्थंकर नामकर्म का उपार्जन करता है। इस कारण से इसका महत्त्व और अधिक बढ़ जाता है। (4) स्वाध्याय तप: स्वाध्याय का सामान्य अर्थ है-अध्ययन करना / ज्ञान प्राप्ति के लिए शास्त्रों काअध्ययन करना ही स्वाध्यायतपहै। ज्ञान प्राप्त करने के साथ-साथ 1. वेयावच्चेणं तित्थयरनामगोत्तं कम्मं निबन्धइ। उ० 26.44
SR No.023543
Book TitleJain Darshan Me Panch Parmeshthi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJagmahendra Sinh Rana
PublisherNirmal Publications
Publication Year1995
Total Pages304
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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