SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 209
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ उपाध्याय परमेष्ठी 173 (ङ) पर्यवचरक ऊनोदरी : उपर्युक्त चारों प्रकार की ऊनोदरी में जो पर्याय बतलाए गए हैं उन सबसे न्यून वृत्ति का होना पर्यवचरक ऊनोदरी है। अर्थात् द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव इन चारों प्रकार से ऊनोदरी तप का पालन करना पर्यवचरक ऊनोदरी है। (3) वृत्तिपरिसंख्यान तप : वृत्ति का अर्थ-आहारहोता है और परिसंख्यान अर्थात् गिनती। गिनती के घरों से भोजन लेना अथवा भोजन की वस्तुओं की संख्या निश्चित करना ही वृत्तिपरिसंख्यान तप है। इस तप में जब मुनि आहार के लिए निकलता है तब यह नियम ले लेता है कि आज मैं एक, दो अथवा दस घर तक जाऊंगा, इनमें आहार मिलेगा तो लूंगा, अन्यथा नहीं, अथवा आज पेय पदार्थ ही लूंगा या मूंग आदि से बना आहार ही लूंगा आदि। (4) रसपरित्यागतपः दूध, दही, घीआदिसरस पदार्थों के सेवन का त्याग करना रसपरित्याग तप है। इस तप का पालन करने से साधु की इन्द्रियाग्नि उद्दीप्त नहीं होती है और ब्रह्मचर्य पालन में सहायता मिलती है। साधु के लिए आहार जीवन को चलाने के लिए होता है, शरीर की पुष्टि के लिए नहीं / अतः रसयुक्त आहार का त्याग आवश्यक है। (3) विविक्तशय्यासन: जहां कोई आता-जाता न हो तथा जो स्त्री, पशुआदि से रहित हो ऐसे एकान्त स्थान में शयन एवं आसन ग्रहण करना, विविक्तशय्यासन तप है।' इस तपसे जीवों को पीड़ा इत्यादि नहीं होती और एकान्त साधना का अभ्यास किया जा सकता है। (6) कायक्लेश : सुखावह वीरासनआदिउग्रआसनों में शरीर को स्थिर करना कायक्लेश तप है। इस प्रकार के आसनों में स्थिरहोने सेशरीर में निश्चलताएवंअप्रमत्तता आती है, साधना में सहायता मिलती है। अतः ये आसन कठोर होते हुए भी सुखकारी कहे गए हैं। 1. वृत्तिपरिसंख्यानं गणितगृहेषु भोजनं वस्तुसंख्या वा / भावापाहुइ, गा०टी० 78, पृ० 353 तथा दे०-मूला०५.३५५ 2. खीरदहिसप्पिमाई पणीयं पाणभोयणं। परिवज्जणं रसाणं तु भणियं रसविवज्जणं / / उ० 30.26 तथा मिलाइये-मूला०५.३५२ 3. एगन्तमणावाए इत्थी पसुविवज्जिए। सयणासणसेवणया विवित्त सयणासणं / / वही, 30.28 4. ठाणा वीरासणाईया जीवस्स उ सुहावहा। उग्गाजहाधरिज्जन्ति कायकिलेसं तमाहियं / / उ० 30.27
SR No.023543
Book TitleJain Darshan Me Panch Parmeshthi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJagmahendra Sinh Rana
PublisherNirmal Publications
Publication Year1995
Total Pages304
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy