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________________ 168 जैन दर्शन में पञ्च परमेष्ठी अजीव इन दो तत्त्वों में ही समावेश हो जाता है। अतः इन तत्त्वों को विधिवत् जानना ही सम्यग्ज्ञान है। रत्नकरण्डकश्रावकाचार में भी कहा गया है कि 'जो ज्ञान वस्तु के स्वरूप को न्यूनतारहित, अधिकतारहित, विपरीततारहित और संशयरहित, जैसा का तैसा जानता है वह सम्यग्ज्ञान कहलाता है।' सम्यग्ज्ञान के भेद : ज्ञान के आवरक पाँच प्रकार के कर्मों के उदय में न रहने से उनके अभाव रूप पाँच प्रकार के ज्ञान बतलाए गए हैं-(१) मतिज्ञान, (2) श्रुतज्ञान, (3) अवधिज्ञान, (4) मनःपर्ययज्ञान और (5) केवलज्ञान। (1) मतिज्ञानःजो ज्ञानचक्षुआदि इन्द्रियों और मन की सहायता से उत्पन्न होता है वह मतिज्ञान है। वर्तमान विषयक ज्ञान का नाम मति है। मति, स्मृति, संज्ञा, चिन्ता, अभिनिबोध-ये सब मति के वाचक हैं क्योंकि ये सभीज्ञानावरणीय कर्म केक्षयोपशम सेहोते हैं / इस प्रकार के ज्ञानों के लिए अभिनिबोधशब्द सामान्य रूपसेव्यवहृत होता है। इस तरह मतिज्ञान को आभिनिबोधिकज्ञान भी कहा जाता है। (2) श्रुतज्ञान : श्रुतज्ञान का सामान्य अर्थ है-शब्दजन्य ज्ञान ! श्रुतज्ञानावरण कर्म के क्षयोपशम होने पर मतिज्ञान के द्वारा जाने हुए पदार्थों को विशेष रूप से जानना श्रुतज्ञान है। जिन-उपदिष्ट प्रामाणिक शास्त्रों से ही सम्यक् श्रुतज्ञान प्राप्त होता है। (3) अवधिज्ञान : अवधि से अभिप्राय है-सीमा। अतः इन्द्रिय आदि की सहायता के बिना कुछ सीमापर्यंत जो रूपी पदार्थों के विषय में अन्तःसाक्ष्य रूप ज्ञान होता है वह अवधिज्ञान है।" 1. अन्यूनमनतिरिक्तं याथातथ्यं विना च विपरीतात्। 2. मतिश्रुताऽवधिमनःपर्यायकेवलानि ज्ञानम्।। त०सू०१.६ 3. तदिन्द्रियाऽनिन्द्रियनिमित्तम्।। वही, 1.14 4. मतिः स्मृतिः संज्ञा चिन्ताऽभिनिबोध इत्यनर्थानतरम् / / वही, 1.13 5. श्रुतज्ञानावरणकर्मक्षयोपशमो सति निरूप्यमाणं श्रूयते यत्तत् श्रुतम्।। त०वृ० 1.6, पृ०५७ 6. अवधिविषयक विस्तृत अध्ययन के लिए दे०-गो० जी०, गा० 370-437 7 अवहीयदि त्ति ओही, सीमाणाणे त्ति वण्णियं समये। भवगुणपच्चयविहियं, जमोहिणाणे त्ति णं बेति।। गोंजी०, गा० 370 रूपिष्ववधेः।। त०सू० 1.28
SR No.023543
Book TitleJain Darshan Me Panch Parmeshthi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJagmahendra Sinh Rana
PublisherNirmal Publications
Publication Year1995
Total Pages304
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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