________________ उपाध्याय परमेष्ठी 165 (क) सम्यग्दर्शन के आठ अंग : सम्यग्दर्शन आठ विशेष बातों पर निर्भर करता है। ये सम्यग्दर्शन के अंग कहलाते हैं (१)निःशंकितःजिनेन्द्र देव के वचनों में किसी प्रकार कीशंका न करते हुए दृढ़ प्रतीति रखना। (2) निःकांक्षितः इस लोक और परलोक सम्बन्धी आकांक्षा का अभाव होना। (3) निर्विचिकित्सा :रत्नत्रय से पवित्र मुनिजनों के शरीरसम्बन्धी मल आदि के देखने से ग्लानि नहीं करना। (4) अमूढदृष्टि :जिनेन्द्र भगवान के वचनों में शिथिलता नहीं करना, मिथ्या-दृष्टियों के कल्पित तत्त्वों में मोह न करना। (5) उपबृंहणःगुणीपुरूषों की प्रशंसा करना उपबृंहण कहलाता है। इसके स्थान पर उपगूहन शब्द भी आता है जिसका अर्थ है बालक, वृद्ध आदि असमर्थ जनों के दोष छिपाना। (६)स्थिरीकरण:धर्म-घातका कारण उपस्थित होने पर किसी को धर्म-घात से बचाना स्थिरीकरण है। (7) वात्सल्य :धर्मात्मा व्यक्ति का उपसर्ग दूर करना वात्सल्य गुण कहलाता है। (E) प्रभावना : जिन धर्म का उद्योत करना, उसका प्रचार एवं प्रसार करना ही प्रभावना कहलाती है। सम्यक्त्वकी प्राप्ति के लिए इनआठअंगों से युक्त होनाअत्यन्तआवश्यक (ख) सम्यग्दर्शन के भेद : कर्म-सिद्धान्त के अनुसार दर्शन मोहनीय कर्म के उदय में न होने से ही सम्यग्दर्शन की उत्पत्ति होती है। उत्पत्ति में निमित्त कारण की अपेक्षा से सम्यग्दर्शन के निम्नलिखित दश प्रकार बतलाए गए हैं: 1. निस्संकिय निक्कंखिय निवितिगिच्छा अमूढदिट्ठीया उवबूह थिरीकरणे वच्छल्ल पभावणे अट्ठ।। उ०२८.३१ 2. दे० चारित्तपाहुड़, गा० टी०,७ 3. निसग्गुवएसरूई आणारूई सुत्त-वीसरूइमेव / अभिगम-वित्थारूई किरिया-सखेव-धम्मरूई। उ०२८.१६