SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 193
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ उपाध्याय परमेष्ठी 157 मास की प्रतिमा होती है उतनी ही अन्न और पानी की दत्तियाँ प्रतिमाधारी भिक्षु ग्रहण करता है। इनमें प्रत्येक प्रतिमा का समय एक मास होता है। ८.आठवीं प्रतिमा: यह प्रतिमा सात अहोरात्रि की होती है। इसमें एकान्तर चौविहार उपवास करना तथा गाँव के बाहर उत्तानासन (आकाश की और मुंह करके लेटना), पाश्र्वासन (एक करवट से लेटना) या निषद्यासन (जमीन पर बैठक लगाकर बैठना) से ध्यान लगाना एवं उपसर्ग आदि आने पर शान्तचित्त से सहना इत्यादि क्रियाएं की जाती हैं।२ / 6. नवी प्रतिमाः यह भी सात अहोरात्रि की ही होती है। विशेषता केवल इतनी है कि इसमें दूसरी प्रकार के तीन आसन किए जाते हैं / वे हैं-- (1) दण्डासन- इस आसन में साधक भिक्षु दण्ड के समान लम्बा होकर सोता है, (2) लगुडासन--इसमें भिक्षु वक्रकाष्ठ की तरह कुबड़ा होकर मस्तक और पैर की एड़ी द्वारा पृथ्वी का स्पर्श करता है किन्तु यहाँ उसकी पीठ का भाग पृथ्वी को स्पर्श नहीं करता और (3) उत्कुटासन-- इसमें भिक्षु साधक भूमि पर पुत न लगाकर पैरों पर बैठता है। 10. दसवीं प्रतिमा : यह प्रतिमा भी सात अहोरात्रि की ही होती है। इसमें अलग प्रकार के तीन आसन किए जाते हैं। वे हैं-- (क) गोदोहिकासनः जिस प्रकार गाय को दोहने के लिए बैठते हैं उसी प्रकार पाँवों के तलों को उठाकर बैठना। (ख) वीरासन : यदि कोई व्यक्ति सिंहासन पर बैठा हो और कोई दूसरा व्यक्ति आकर उसके नीचे से सिंहासन हटा दें और बैठने वाला उसी प्रकार से अविचलरूपसे बैठा रहे, उसी प्रकार से बैठना वीरासन है। (ग) आम्रकुब्जासन: जिस प्रकार आम का फल वकाकार होता है उस प्रकार से बैठना आम्रकुब्जासन कहलाता है। इनमें से किसी भी आसन में ध्यान लगाया जा सकता है / बाकी उपवास आदि की 1. दे०- वही, 7.23 2 दे०-दशा० 7.24 3. वही, 7.25
SR No.023543
Book TitleJain Darshan Me Panch Parmeshthi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJagmahendra Sinh Rana
PublisherNirmal Publications
Publication Year1995
Total Pages304
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy