________________ 142 जैन दर्शन में पञ्च परमेष्ठी ___ साधु रहते ही हैं। प्राचीन काल में आचार्य पर्व-दिनों में विद्याओं का परावर्तन करते थे, इसलिए उन्हें एक दिन-रात अकेले रहना पड़ताथा अथवा कृष्णा चतुर्दशी अमुक विद्या साधने का दिन है और शुक्ला प्रतिपदा अमुक विद्या साधने का दिन है तब आचार्य तीन दिन-रात तक अकेले अज्ञात में रहते हैं / फिर भी इस प्रकार अकेले रहते हुए उन्हें मर्यादा का उल्लंघन नहीं होता। (5) पांचवा अतिशेष है- एक-दो रात उपाश्रय से बाहर अकेले रहना। मन्त्र, विद्या आदि की साधना करते समय जब आचार्य वसति के अन्दर अकेले रहते हैं-तब सारा गण बाहर रहता है और जब गण अन्दर रहता है तब आचार्य बाहर रहते हैं क्योंकि विद्या आदि की साधना में व्याक्षेप न हो तथा अयोग्य व्यक्ति मन्त्र आदि को सुनकर उसका दुरूपयोग न करें, इसलिए ऐसा करना होता है। (ञ) आचार्य तथा उपाध्याय में संग्रहस्थान : यहाँ पर संग्रहस्थान से अभिप्राय उन बातों से है जिनका ध्यान रखने से आचार्य ज्ञान अथवा शिष्यों का संग्रह कर सकते हैं-संघ में व्यवस्था कायम रख सकते हैं। आचार्य तथा उपाध्याय के सात संग्रहस्थान बतलाए गए हैं। (1) आचार्य को आज्ञा और धारणा का सम्यक् प्रयोग करना चाहिए। किसी कार्य के लिए विधान करने को आज्ञा कहते हैं, तथा किसी बात से रोकने को धारणा कहते हैं। आज्ञा और धारणा का समुचित प्रयोग न होने पर साधु आपस में या आचार्य के साथ कलह करते हैं जिससे कि संघ में व्यवस्था बिगड़ जाती है। (२)आचार्य और उपाध्याय को रत्नाधिक की वन्दना इत्यादि का सम्यक् प्रयोग करना चाहिए। यदि कोई छोटा साधु रत्नाधिक की वन्दना न करे तो आचार्य और उपाध्याय का यह कर्तव्य है कि वे उसे वन्दना के लिए प्रवृत्त करें, नहीं तो व्यवस्था बिगड़ सकती है। (3) शिष्यों में जिस समय जिस सूत्र को पढ़ने की योग्यता हो अथवा जितनी दीक्षा के बाद जो सूत्र पढ़ना चाहिए उसकाआचार्य हमेशाध्यान रखें / ऐसा न करने पर नवदीक्षित साधुतंग होकर 1 पक्खस्स अठमी खल मासस्स य पक्खिअंमणेयव्वं / अण्णंपि होइ पव्वं उवरागो चंदसूराणं / / वही, 6.252 2. वा अंतो गणी व गणो विक्खेवो मा हु होज्ज अग्गहणं। वसतेहि परिखत्तो उ अत्थते कारणे तेहि।। व्यवहारभाष्य, 6.258 3. ठाणं,७.६ 4. जो साधु दीक्षा में बड़ा हो वह रत्नाधिक कहलाता है। 5. कितने वर्ष की दीक्षा के बाद कौन सा शास्त्र पढ़ाया जाए, इसकी विस्तृत जानकारी के लिए दे०-व्यवहार सूत्र, 10.24-38