________________ 136 जैन दर्शन में पञ्च परमेष्ठी वाले मनुष्य सुलभबोधि हैं या दुर्लभबोधि? ऐसा जानकर वाद का प्रयोग करना क्षेत्रज्ञानपूर्वक वादप्रयोग है। (घ) वस्तुज्ञानपूर्वक वाद का विषय सरल है या कठिन है, इस प्रकार जानकर वाद का प्रयोग करना वस्तुज्ञान पूर्वक वाद प्रयोग कहलाता है। वस्तु हेय, उपादेश और उपेक्षणीय के भेद से तीन प्रकार की बतलायी गई है। क्रोध आदि हेय है, क्षान्ति आदि उपादेश है और परदोष आदि उपेक्षणीय है ऐसा जानकर वाद का प्रयोग करना भी वस्तुज्ञान पूर्वक वाद प्रयोग है। 8. संग्रह परिज्ञा सम्पदा : संग्रह सेअभिप्राय है--एकत्रित करना / यह दोप्रकार से होता है--द्रव्य से और भाव से / आवश्यक एवं कल्पनीय वस्त्र, पात्र आदि का एकत्रीकरण द्रव्यतः संग्रह है, और अनेक शास्त्र तथा आप्तजनों से पदार्थ के एकत्रीकरण को भावतः संग्रह कहा जाता है। इनमें विचक्षणता को परिज्ञा कहते हैं / यही आचार्य की आठवीं सम्पदा है / यह भी चार प्रकार की बतलाई गई है। (क) वर्षावासयोग्य क्षेत्र-प्रतिलेखना : वर्षावास में निवास के लिए साधु-साध्वियों के योग्य ग्राम अथवा नगर आदि की शास्त्रमर्यादानुसार गवेषणा करना वर्षावासयोग्य क्षेत्र प्रतिलेखना है। व्यवहारभाष्य में इसी आशय को और अधिक स्पष्ट करते हुए कहा गया है कि आचार्य को वर्षा ऋतु के लिए ऐसे क्षेत्र का निर्वाचन करना चाहिए जो समूचे संघ के लिए उपयुक्त हो। (ख) बहजनार्थ प्रातिहारिक पीठफलकादि ग्रहण स्थानीय तथा बाहर बहुत से साधुवर्ग के लिए प्रातिहारिक पीठ,फलक, शय्या तथा संस्तारक आदि की व्यवस्था करना बहुजनार्थप्रातिहारिक पीठादि ग्रहण सम्पत् कही जाती है | व्यवहारभाष्य में भी आता है कि 'वर्षाकाल में मुनि अन्यत्र विहार नहीं करते तथा उस समय वस्त्र आदि भी नहीं लेते / वर्षाकाल में पीठ-फलक के बिना वस्त्र, संस्तारक आदि मैले हो जाते हैं तथा भूमि की शीतलता से कुन्थु आदि जीवों की उत्पत्ति भी हो जाती है। इसलिए आचार्य साधुवर्ग के लिए वर्षाकालीन निवास के लिए पीठ-फलक आदि की समुचित व्यवस्था करते है। 1. संगहपरिन्नानामं संपया चउविहा पण्णत्ता, तं जहा-१. बहुजणपाउग्गयाए वासावासेसु खेत्तं पडिलेहिता भवइ.२.बहुजणपाउग्गयाएपाडिहारिय-पीढफलग-सेज्जा-संथारयं उग्गिण्हित्ता भवइ, 3. कालेणं कालं संमाणइत्ता भवइ. 4. अहागुरु संपूएत्ता भवइ / से तं संगहपरिन्नानामं संपया। दशा० 4.8 2. वासे बहुजणजोग्गं विच्छिन्नं जंतु गच्छपाओग्गं / अहवा वि बालदुब्बलगिलाण आदेसमादीणं / / व्यवहारभाष्य, 10.260 3. न उ मइल्लेति निसेज्जा पीढफलगाण गहणंमि / वियेरे न तु वासासु अन्नकाले उ गम्मते णत्थ / पाणासीयल कुंथादिया ततो गहण वासासु / / व्यवहारभाष्य, 10/261-262