________________ 132 जैन दर्शन में पञ्च परमेष्ठी (क) बहुश्रुतता: जिस काल में जितने भीशास्त्रउपलब्धहो, उन सबको हेतु और दृष्टान्त से जानने वाला होना बहुश्रुतता सम्पत् है। (ख) परिचितश्रुतता: शास्त्रीय ज्ञान की बार-बार आवृत्ति करके, अस्खलित रूप से शास्त्रों का परिचित होना अर्थात् शास्त्रों का सदैव स्मृतिपटल पर रहना परिचितश्रुतता है। (ग) विचित्रश्रुतता: स्वऔर पर दोनों परम्पराओं के ग्रन्थों में निपुणता का होना विचित्रश्रुतता है। व्यवहारभाष्यकार ने इसके अतिक्ति विचित्रश्रुतता का अर्थ उत्सर्ग और अपवाद' को जानना भी किया है। (घ) घोषविशुद्धिकारकता : आचार्य शास्त्रों का उदात्त, अनुदात्त और स्वरित-इन तीन घोषों से युक्त शुद्ध उच्चारण करने वाला होता है। यही उसकी घोषविशुद्धिकारकता है। (3) शरीर सम्पदा: . सुन्दर आकृति, सुदृढ़ संस्थान तथा तेजस्वी शरीर का धारक होना शरीर-सम्पदा है। यह चार प्रकार की बतलायी गई है। (क) आरोहपरिणाहसम्पन्नता आरोह लम्बाई को कहते हैं और परिणाह का अर्थ है-चौड़ाई। इस प्रकार आचार्य के शरीर का उचित लम्बाई और चौड़ाई वाला होना ही उनकी आरोहपरिणाह सम्पत् से सम्पन्न होना है। (ख) अनवत्राप्यशरीरता : आचार्य के शरीर का अंगहीन, घृणाजनक और हास्यकारक न होना अनवत्राप्यशरीरता है। (ग) स्थिरसंहननता: संहनन से अभिप्राय है--दृढ़ता। आचार्य का शरीर इतना सुदृढ़ एवं सामान्य नियम को उत्सर्ग कहते हैं जैसे हिंसा न करना, परन्तु मूल नियम की रक्षा हेतु आपत्ति आने पर अन्य मार्ग ग्रहण करना अपवाद है जैसे साधु का नदी पार करना आदि। जैन सिद्धान्त बाल संग्रह भाग-१, बोल नं० 40 2 ससमयपरसमएहिं य उस्सग्गोववायतो चित्तं / व्यवहारभाष्य, 10.261 3. सरीरसंपया चउविहा पण्णत्ता,तं जहा-आरोह-परिणाहसम्पन्नयाविभवइ,अणोतप्पसरीरया, थिरसंधयणया, बहुपडिपुणिंदिययावि भवइ / से तं सरीसंपया / दशा० 4.3