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________________ 115 आचार्य- परमेष्ठी (1) शून्यागार निवास: वृक्षों की कोटर तथा पर्वतों की गुफा आदि निर्जन स्थानों में रहना शून्यागार निवास है / (2) विमोचितावासःजो गाँव राजाओं के आक्रमण आदि से उजड़ जाते हैं, वहाँ के निवासी उन्हें छोड़कर अन्यत्र चले जाते हैं / इस प्रकार के दूसरों के द्वारा छोड़े हुए स्थानों में रहना ही विमोचितावास (3) परोपरोधाकरणः दूसरों का उपरोध नहीं करनाअर्थात् अपने स्थान में ठहरने से नहीं रोकना परोपरोधाकरण है / (4) एषणाशुद्धि सहितत्व : किसी उपकारण इत्यादि को लेकर सहधार्मियों के साथ विवाद न करना अर्थात् 'यह वस्तु हमारी है' अथवा 'यह तुम्हारी है' इस प्रकार परस्पर विवाद न करना सधर्माविसंवाद है / ' इनमें से प्रथम तीन भावनाओं के पालन से स्थान सम्बन्धी चोरी टल जाती है | चौथी भावना के पालन से भिक्षा सम्बन्धी दोष जिनकों भिक्षा की चोरी कहा जाता है, उनसे बचा जा सकता है और पाँचवी भावना से उपकरण सम्बन्धी चोरी का दोष नहीं आता है / चौथा महाव्रत-ब्रह्मचर्य : मन-वचन-काय तथा कृत कारित-अनुमोदना से मनुष्य, तिर्यञ्च एवं देव शरीर सम्बन्धी सब प्रकार के मैथुन सेवन का त्याग करना, ब्रह्मचर्य महाव्रत है / भगवती आराधना में अब्रह्य के दस प्रकार बतलाए गए हैं -- (1) स्त्री सम्बन्धी विषयों की अभिलाषा, (2) लिङ्ग के विकार को न रोकना, (3) वीर्यवृद्धिकारक आहार और रस का सेवन करना, (4) स्त्री से संसक्त शय्या आदि का सेवन करना, (5) उनके गुप्तांग को देखना, (6) अनुराग-वश उनका सम्मान करना, (7) वस्त्र आदि से उन्हें सजाना, (8) अतीतकाल में की गई रति का स्मरण, (9) आगामी रति की अभिलाषा और (10) इष्ट विषयों का सेवन / इन दस प्रकार के अब्रश से बचने के लिए पूर्वोक्त दस प्रकार के समाधि स्थानों का पालन करना आवश्यक है / 1. विस्तार के लिए दे०- त० वृ०७.६ 2. दिव्व-माणुस-तेरिच्छं जो न सेवइ मेहुणं / मणसा काय वक्केणं तं वयं बूम माहणं / / उ० 25.26 इत्थिविसयाभिलासो वत्थिविमोक्खो य पणिदरससेवा / संसत्तदब्बसेवा तदिदियालोयणं चेव / / सक्कारो संकारो अदीदसुमरणमणागदभिलासे / इट्ठविसयसेवा वि य अब्बभं दसविहं एदं / / भग० आ०, गा० 873-74
SR No.023543
Book TitleJain Darshan Me Panch Parmeshthi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJagmahendra Sinh Rana
PublisherNirmal Publications
Publication Year1995
Total Pages304
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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