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________________ 106 जैन दर्शन में पञ्च परमेष्ठी करता है, वह ही सूरि है | जिसका अनुकरण किया जाता है वह आचार्य, तथा जिसकी वाणी प्रशंसा के योग्य होती है, वह वाग्मी एवं जो न्याय तथा विचार में नियुक्त हो वह नैयायिक होता है / इस प्रकार आचार्य इन सभी गुणों से सम्पन्न होते हैं / (ग) आचार्य के छत्तीस गुण : ___ श्वेताम्बर एवं दिगम्बर दोनों ही परम्पराओं में आचार्य के छतीस गुण स्वीकार किए गए हैं किन्तु संख्या में एकरूपता होते हुए भी भेदों में वैषम्य दृष्टिगोचर होता है श्वेताम्बर परम्परानुसार : जो पांचों इन्द्रियों को वश में करता है, नौ प्रकार की ब्रह्मचर्य की गुप्तियों को धारण करता है, चार प्रकार की कषायों से मुक्त है, पाँच महाव्रतों तथा पांच आचारों के पालन में समर्थ है और जो पाँच समिति और तीन गुप्ति का धारक है, वही आचार्य होता है / 2 (अ) पंचेन्द्रियनिग्रही आचार्य : निग्रह का अर्थ है- पूर्ण रूप से अपने वंश में करना, उन्हें स्वयं प्रवृत्त न होने देना / श्रोत्र, चक्षु, त्वक्, जिह्वा एवं घाण ये पाँच इन्द्रियां हैं / इन पर नियन्त्रण रखना, इन्द्रियों को उनके विषयों में प्रवृत्त न होने देना ।इसका अर्थ यह नहीं है कि इन्द्रियों से देखना, सुनना आदि बन्द कर दिया जाए, इसका भाव यही है इन्द्रियों का उनके अच्छे-बुरे विषयों के प्रति किसी प्रकार का राग-द्वेष न रहे, समभाव से प्रवृत्ति हो / अतः आचार्य इन्द्रियों के शब्द-रूप आदि मनोज्ञ विषयों में रागभाव नहीं करते और इन्द्रियों के अमनोज्ञ विषयों में तनिक भी द्वेषभाव नहीं रखते / अतएव वे पंचेन्द्रियनिग्रही कहलाते हैं / (आ) ब्रह्मचर्य की नवविध गुप्तियों के धारक आचार्य : जिस प्रकार एक किसान अपने बोए हुए खेत की रक्षा के लिए उसके चारों ओर बाड़ लगाता है, उसी प्रकार आचार्य धर्म के बीज रूप ब्रह्मचर्य की 1. प्रजानातीति प्राज्ञः, मेधास्त्यस्य मेधावी, वेत्ति जानाति इति विद्वान्, अभिगतं रूपं (विद्या) येन अभिरूपः विविधं चष्टे विचक्षणः, पण्डा (बुद्धिः) सञ्जातास्येति पंडितः, सूते बुद्धिं सूरिः, आचर्यते आचार्यः, प्रशस्ता वागस्त्यस्य वाग्मी, न्याये विचारे नियुक्तो नैयायिकः / / नाममाला, भाष्य, श्लो० 111 पंचिदियसंवरणो, तह नवविहबम्भचेरगुत्तिधरो / चउविह कसाय मुक्को इअ अट्ठारस गुणेहिं संजुत्तो / / पंचमहव्वयजुत्तो,पंचविहायारपालणसमत्थो। पंचसमिओ तिगुत्तो, इइ छत्तीसगुणेहिं गुरु मज्झं / / दे० -- जैन तत्व कलिका, पृ० 130, पा०टि० 3. जे इन्द्रियाणं विसया मणुन्ना न तेसु भावं निसिरे कयाइ / न यामणुन्नेसुमणं पि कुज्जा समाहिकामे समणे तवस्सी / / उ० 32.21
SR No.023543
Book TitleJain Darshan Me Panch Parmeshthi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJagmahendra Sinh Rana
PublisherNirmal Publications
Publication Year1995
Total Pages304
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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