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________________ 90 जैन दर्शन में पञ्च परमेष्ठी जननिवास के ऊपरी भाग को ऊलोक बतलाया गया हैं। जहां मुख्य रूपसे देव निवास करते हैं उसे देवलोक से जाना जाता है। उसे हीयक्षलोकर तथा ब्रह्मलोक भी बतलाया गया है। ऊर्ध्वलोक में ऊपर-ऊपर देवों के कई विमान हैं। सब प्रकार की अभिलाषाओं को पूर्ण करने वाले 'सर्वार्थ सिद्ध' नामक अन्तिम विमान से 12 योजन (लगभग 48000 क्रोश क्षेत्र-प्रमाण) ऊपर ईषत्प्राग्भारा नामक पृथ्वी है जो पैंतालीस लाख योजन लम्बी तथा उतनी ही चौड़ी है। इसकी परिधि उससे तिगुनी है। मध्यभाग में इसकी मोटाई आठ योजन है, जो क्रमशः चारों ओर से पतली होती हुई अन्तिम भाग में मक्खी के पंख से भी पतली रह गई है। इसका आकार खोले हुए छत्र के समान है। शंख, अंक-रत्न (रत्न-विशेष) और कुन्द के पुष्प के समान स्वभावतः सफेद, निर्मल, शुभ एवं सुवर्णमयी होने से इसे 'सीता' नाम से भी कहा गया है। इससीता नामक ईषत्प्राग्भारा पृथ्वीसे एक योजन-प्रमाण ऊपर वाले क्षेत्र को लोकान्तभाग कहा गया है क्योंकि इसके बाद लोक की सीमा समाप्त हो जाती हैं। इसी एक योजन-प्रमाण लोकान्तभाग के ऊपरी क्रोश के छठे भाग में सिद्धों का निवास माना गया है।" (ट) विभिन्न अपेक्षाओं से सिद्धों की गणना : उत्तराध्ययनसूत्र के अनुसार मुक्ति का द्वार सभी जीवों के लिए सभी क्षेत्रों में तथा सभी कालों में खुला रहता है। यहां एक समय में एक साथ सिद्ध होने वाले जीवों की जो संख्या बतलाई गई है वह इस प्रकार है१. देवलोग-चुओ संतो। वही, 16.8 2. गच्छे जक्खसलोगयं / उ०५.२४ 3. से चुए बम्भलोगाओ।। वही, 18.26 4. विस्तार के लिए दे०-वही, 36.57-62 5. दस घेव नपुंसेसु वीसं इत्थियासुय। पुरिसेसु य अट्ठसयं समएणेगेण सिज्झई।। चत्तारिय गिहिलिंगे अन्नलिंगे दसेव य। सलिगेण य अट्ठसयं समएणेगेण सिज्झई।। उक्को सोगाहणाए य सिज्झन्ते जुगवं दुवे। चत्तारि जहन्नाए जवमज्झट्ठुत्तरं सयं / / चउरुड्ढलोए य दुवे समुदद्दे तओ जले वीसमहे तहेव / सयं च अठुत्तर तिरियलोए समएणेगेण उ सिज्झई उ।। उ०३६.५१-५४
SR No.023543
Book TitleJain Darshan Me Panch Parmeshthi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJagmahendra Sinh Rana
PublisherNirmal Publications
Publication Year1995
Total Pages304
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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