SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 109
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ तृतीय परिच्छेद सिद्ध परमेष्ठी तेरहवें गुणस्थानवर्ती योगयुक्त उत्कृष्ट योगावचर को जिन, अर्हत्त्व की उपलब्धि हो जाने पर सयोगकेवली कहा जाता है किन्तु जब वही चौदहवें गुणस्थान में पहुंचता है तब इनके योग का निश्शेषतः अभाव हो जाता है और वे सम्पूर्ण कर्मबन्ध से भी परे हो जाते हैं। इसी से ये अयोगकेवली कहलाते हैं। इन्हें जो कुछ भी करणीय था वह उनके द्वारा पूर्ण कर लिया होता है। अब वे विगतकर्मा हैं, भवहीन हैं और कृतकृत्य हैं। ऐसी आत्मा जिसने सम्पूर्ण कर्म- इन्धन को नष्ट कर दिया है, जिसकी कर्माग्नि शान्त हो गई है, वही कर्मक्षयी आत्मा अब सिद्ध परमेष्ठी पद पर प्रतिष्ठित हो जाती है। (क) सिद्ध पद का निर्वचन एवं व्याख्या : व्याकरण के अनुसार सिद्ध शब्द सिध्+क्त प्रत्यय से बना है। जिसका साधन हो चुका है, जो पूरा हो चुका है, सम्पन्न, अनुष्ठित, अवाप्त एवं सफल' इत्यादि ही विद्वानों ने इसके अर्थ किए हैं। जैन दर्शन में इस पद की विभिन्न विशिष्ट व्याख्याएं उपलब्ध होती हैं। भगवतीसूत्र में सिद्ध शब्द की निरुक्तिएवं व्युत्पत्तिपरक जो भिन्न-भिन्न व्याख्याएं की गई हैं वे निम्न प्रकार हैं "जिन्होंने भूतकाल में बांधे हुए (पूर्वबद्ध)आठ प्रकार के कर्मों को शुक्ल ध्यानरूपी अग्नि के द्वारा नष्ट कर दिया है-वे सिद्ध कहलाते हैं। सिद्ध पद की व्युत्पत्ति गत्यर्थक 'षिधु' धातु से 'क्त' प्रत्यय लगाकर होती है जिससे इसका अर्थ यों निकलता है कि 'जो ऐसी निर्वाणपुरी को चले गए हैं, जहां से उन्हें कभी भी वापिस नहीं आना पड़ता' / "षिधु' धातु का दूसरा अर्थ संराधन अर्थात् निष्पत्ति भी लिया जाता है। इस प्रकार जिनका लक्ष्य सिद्ध हो गया है अथवा निष्पन्न हो गया है-वे ही सिद्ध हैं। 1. दे०-(आप्टे). संस्कृत-हिन्दी कोष, पृ० 1105 2. सितं-बद्धमष्टप्रकारं कर्मेन्धनमातं-दग्धं जाज्वल्यमानशुक्लध्यानानलेन यैस्ते। भग०वृ०प०३ 3. अथवा पिधु गतौ' इति वचनात् सेधन्ति स्म-अपुनरावृत्या निर्वृतिपुरीमगच्छन् / वही 4' विधु संराद्धौ इति वचनात सिद्धयन्ति स्म निष्ठितार्था भवन्ति स्म। वही
SR No.023543
Book TitleJain Darshan Me Panch Parmeshthi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJagmahendra Sinh Rana
PublisherNirmal Publications
Publication Year1995
Total Pages304
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy