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________________ (68) हैं / किले के अन्दर नव टोंके हैं और प्रतिटोंक का किला ( कोट) अलग अलग है, जो प्रतिटोंक की हद का घोतक है / एक टोंक से दूसरी टोंक में जाने के लिये प्रतिकोट में बारियाँ बनी हुई हैं। हरएक टोंक में पानी के टांके हैं, जो बारहो मास जलपूर्ण रहते हैं और टोंकों की रक्षा के वास्ते टोंकों के मुख्य प्रवेशद्वार के दरीखाने में पहरादार (सिपाही) बैठे हुए हैं / हरएक टोंक दर्शनीय सौधशिखरी भव्य जिनालयों से शोभित है और संगमरमर की पचरंगी लादियों से उनके आंगन, इस कदर सजे हुए हैं कि देखनेवालों को देखते देखते तृप्ति नहीं होती और न वहाँ से हठने की इच्छा होती। अतएव जिस मनुष्यने इस पवित्रतम तीर्थाधिराज की यात्रा एक वार भी कर ली हो, उसी का जन्म सफल है। कहा भी है किते पुन्यवंता नर जाणिये, कीधी शत्रुजे यात्र / ते नर राने रोया जाणो, जेणे न करी तेनी यात्र // 1 // दीन उद्धार न कीधो जेणे, न लह्यो शास्त्र विचार / गिरि शत्रुजे जे नवि चढ्यो, एले गयो तस अवतार // 2 // जन्म सफल कीधो नर जेणे, लक्ष्मी सुमार्गे स्थापि / श_जे जइ प्रासाद कराव्या, तस कीर्ति जग व्यापि // 3 // ___ अस्तु, नव टोंकों के नाम, उनमें बड़े मन्दिर, देव. कुलिका ( छोटे-मन्दिर), जिनप्रतिमा और चरण-पादुका की संख्या-दर्शक तालिका इस प्रकार है
SR No.023536
Book TitleYatindravihar Digdarshan Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYatindravijay
PublisherSaudharm Bruhat Tapagacchiya Shwetambar Jain Sangh
Publication Year1935
Total Pages222
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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