________________ ( 487 ) आज्ञाप्रधानता, मंडलेश्वरपन, चक्रवर्तीपन, देवत्व, इन्द्र तुल्य ऋद्धि धारी सामानिक देव बनना, इन्द्रत्व, नवग्रैवेयकत्व, सर्वार्थ सिद्धि में देव बनना, सिद्ध होना, और तीर्थकर पद मिलना / ये सब व्रत के ही फल हैं / जो मात्र एक दिन ही मोहरहित होकर यथाविधि साधु व्रत पालन करता है, वह यदि मोक्षमें नहीं जाता है तो भी उसको वैमानिक देवपद तो अवश्यमेव मिलता है / जैसे-मंत्र, यंत्र, तंत्र, औषध, शकुन और चमत्कारिक विषयों विधिपूर्वक सेवन करने से फलदायी होते हैं, वैसे ही प्रव्रज्या-जिसको दीक्षा, संयम, व्रत, योग, सन्यास आदि भी कहते हैं-भी यदि विधि सहित सेवन किया जाता है तो वह उक्त प्रकार के फलों को देती है; अन्यथा उसका विपरीत फल होता है। प्रव्रज्या के अधिकारी जीव में क्षान्ति गुण का होना सबसे ज्यादा जरूरी है। क्षान्तिसे प्रव्रज्या का पालन पोषण होता है / क्षांतिके अभाव में सब गुणों का अभाव होता है, और क्षान्तिकी उपस्थिति में सब की उपस्थिति / गुण रूपी रत्नों की रक्षा करने के लिए क्षान्ति एक तिजोरी के समान है। क्षमाविहीन साधु सकलशास्त्र पारगामी होने पर भी, स्वपर कल्याण नहीं कर सकता है / इस बात को सारा संसार स्वीकार करता है। आबाल वृद्ध अनुभव प्रमाण से इसको सत्य मानते हैं। इसीके पुष्टि में हम यहाँ पूर्वाचार्यों के कथन का कुछ उल्लेख. करेंगे / कहा है कि: