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________________ हजारों नदी कूओं में डुबकी मारो; और इस तरह शुद्ध बन कर, किसी पर थूक कर देखो लड़ाई होती है या नहीं ? शरीर को मदिरा के घड़े की और गंदगी के गड्डे की उपमा दी गई है, वह सर्वथा ठीक है / तत्ववेत्ताओं का यह कहना सर्वथा ठीक है कि, जो जलादि से शरीरादि की शुद्धि मानते हैं वे छिल के कूट कर उनमें से आता निकालना चाहते हैं / 12 इसलिए ऐसे ( अपवित्र शरीर से ) मोक्ष का फलदाता तपरत्न प्रहण कर लेना चाहिए / खारे समुद्र में से भी रत्न निकाले जाते हैं। बुद्धिमान असार में से भी सार ग्रहण कर लेते हैं। इसी तरह इस अशुचि शरीर से धर्म कार्य करना चाहिए। इस प्रकार के शरीर की वास्तविक स्थिति को मनुष्य उसी समय समझ सकता है जब वह यह समझने लगता है कि-" मैं अकेला हूँ। मेरा कोई नहीं हैं। मैं अकेला आया हूँ और अकेला ही जाऊँगा / " जबतक इस तरह से एकत्व भावना, मनुष्य नहीं भावेगा तब तक उसका शरीर पर का मोह कदापि नहीं छूटेगा / यहाँ एकत्व भावना का दिग्दर्शन कराया जाता है। एकत्व भावना। पुत्रमित्रकलत्रादेः शरीरस्यापि सत्क्रिया। परकार्यमिदं सर्वं न स्वकार्य मनागपि // 1 //
SR No.023533
Book TitleDharm Deshna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaydharmsuri
PublisherYashovijay Jain Granthmala
Publication Year1932
Total Pages578
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size27 MB
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