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________________ ( 406) फिर ब्राह्मण चक्रवर्ती के पास जाकर खड़ा रहा। उसे देखकर चक्रवर्तीने कहाः-' बोल क्या चाहता है ? नो माँगेगा सोही तुझको मिलेगा / ' ब्राह्मणने प्रसन्न वदन होकर कहा:-'हे महाराज ! मैं यही चाहता हूँ कि आपके सारे राज्यमें से वारेफिरते प्रतिदिन भोजन और एक स्वर्णमुद्रा मिला करे / ' ब्राह्मण की बात सुनकर, चक्रवर्ती को आश्चर्य हुआ। उसने मनही मन कहा,-' भले पुष्करावर्त मेघ की वर्षा बरसने लगे; परन्तु पर्वत के शिखर पर तो उतनाही जल ठहरता है; जितनी उस पर जगह होती हैं / खैर / जिसके भाग्य में जितना होता है उतनाही उसको मिलता है।" तत्पश्चात् राजाने उस दिन अपने ही महल में उसको भोजन करा, दक्षिणा में स्वर्णमुद्रा दे, विदा किया। उसको चक्रवर्ती के घरका भोजन केवल एक दिन ही मिला / पाठक ! सोचिए कि, चक्रवर्ती के राज्य में छियानवे करोड घर होते हैं; उन छियानवे करोड के घर जीमन कर उसका चक्रवर्ती के घर आना क्या संभव है ? यदि यह संभव भी होजाय तो भी बार बार मनुष्य जन्म का मिलना तो बहुत ही कठिन है।" दूसरा पासों का दृष्टान्त है / उसकी कथा इसतरह पर है:"राजा चंद्रगुप्त के भंडार में खुब धन जमा करनेके लिए चाणक्यने एक देव की आराधना की। देवने प्रसन्न होकर उसको
SR No.023533
Book TitleDharm Deshna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaydharmsuri
PublisherYashovijay Jain Granthmala
Publication Year1932
Total Pages578
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size27 MB
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