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________________ (38) सेठियाजैनप्रन्थमाला nerawwwmmmmmmmmmmm ऋषभदेव और अन्तिम तीर्थंकर भगवान् महावीर के साधु और श्रावकों को अवश्य प्रतिक्रमण करना चाहिए। पहले कहा जा चुका है कि साधु और श्रावकों के व्रतों में एक देश और सर्वदेश का भेद होता है, इसलिए उनके दोषों में भी भिन्नता होगई है, और इसीसे प्रतिक्रमण भी साधु और श्रावकों का जुदा जुदा है। प्रतिक्रमण दो प्रकार का है-द्रव्य प्रतिक्रमण और भावः प्रतिक्रमण / प्रतिक्रमण के अर्थों के जाने विना जो प्रतिक्रमण करना है उसी को द्रव्य प्रतिक्रमण कहते हैं; कारण कि इस प्रकार प्रतिक्रमण करने से हेय (त्यागने योग्य) ज्ञेय(जानने योग्य) और उपादेय (ग्रहण करने योग्य) पदार्थों का भली भांति उसे बोध नहीं हो सकता है / इसी कारण से वह अशुभकृत्यों से निवृत्ति भी नहीं करसकता, इसलिए बहुधा लोग द्रव्यप्रतिक्रमण करने वालों का उपहास करते रहते हैं / अत एव भाव प्रतिक्रमण ही उपादेय है। इसी प्रकार काल के भेद से प्रतिक्रमण के तीन भेद भी होजाते हैं। जैसे (1) भूतकाल में लगे हुए दोषों की आलोचना करना, (२)संवर करके वर्तमान काल के दोषों से बचना, (३)प्रत्याख्यान द्वारा भविष्यत्कालीन दोषों को रोकना / प्रतिक्रमणे छह आवश्यकों में से एक आवश्यक है। जो कार्य अवश्य करणीय हो, वह आवश्यक कहा जाता है / इसलिए मनोयोग पूर्वक इसे अवश्य करना चाहिए, अतएव इसीका नाम भावावश्यक है वा भावप्रतिक्रमण है / प्रतिक्रमण द्वारा जिन भूलों का संशोधन करते हैं, उन्हें फिर न करना चाहिए / इस विषय में एक तुल्लक साधु के बार बार कंकर मार कर, बारम्बार माफी मांगने का उदाहरण प्रसिद्ध है।
SR No.023532
Book TitleNiti Shiksha Sangraha Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBherodan Jethmal Sethiya
PublisherBherodan Jethmal Sethiya
Publication Year1927
Total Pages630
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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