SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 165
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ पाना चाहिये / जिसको इन्द्रियाँ विषयों से . मात्त (पीड़ित) हैं, उसे शान्त स्वरूप प्रात्म सुख की प्रतीति कैसे हो सकती है। 240 जो जीव सत्पुरुषों के गुणों का विचार नहीं . करता और अपनी मनोकल्पना का प्राश्रय : लेता है, वह सहज ही संसार की वृद्धि करता है। अर्थात् वह जीव अमर होने के लिए विष पीता है। . 241 हे सर्वोत्तम सुख के साधनभूत सम्यग्दर्शनं ! तुझे अत्यन्त भक्ति से नमस्कार हो, भगवदु. पदिष्ट प्रात्म-सुख का मार्ग श्री गुरु महाराज से जान कर, इसकी यत्नपूर्वक उपासना करो। 242 देह से भिन्न स्वपरप्रकाशक परमज्योति स्वरूप आत्मा में मग्न होओ। हे आर्यजनो! आत्माकी ओर उन्मुख हो कर स्थिरतापूर्वक आत्मा में ही लीन रहोगे, तो अनन्त अपार आनंद का अनुभव करोगे। -243 जीवन का एक क्षण करोड़ों सुवर्ग मोहरों से भी खरीदा नहीं जा सकता, उसे व्यर्थ खोने सरीखी और कौनसी हानि है।
SR No.023532
Book TitleNiti Shiksha Sangraha Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBherodan Jethmal Sethiya
PublisherBherodan Jethmal Sethiya
Publication Year1927
Total Pages630
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy