________________ (16) सेठियाजैनग्रन्थमाला राग या द्वेष अथवा ईर्षा न होनी चाहिए। क्योंकि उन के द्वारा जो कुछ होता है, वह योग्य होता है-पहले किये हुए कर्म के अनुसार होता है। 26 इस संसार में जो कुछ करना है कर लो / जिन का तुम से सम्बन्ध है, वे सब तुम्हारे सुधारे के लिए ही हैं, ऐसा निश्चय रख कर अपना सुधारा करने लिए उन से गुण ग्रहण कर लो। 27 दूसरों का जितना आश्रय, उतनी ही पराधीनता और उतना ही दुःख है। 28 जिसका मन शुद्ध है, उसका शरीर भी शुद्ध है। जिसका मन अशुद्ध (सदोष) है, उस का शरीर शुद्ध होने पर भी अशुद्ध समान है। 26 प्रत्येक वस्तु के गुण ग्रहण कर लो, अर्थात् सदा गुण ग्रहण करने की आदत रक्खो , दोषों पर दृष्टि न दो / 30 वात पित्त और कफ ये तीन शरीर के दोष हैं / मल विक्षेप और आवरण ये तीन मन के दोष हैं। 31 जैसा. पात्र होता है, वह वैसा और उतना ही ग्रहण कर सकता है, इसलिए उस के सामने वैसा और उतना ही बोलना चाहिए / यह वाणी की शुद्धि है। . 32 मन वचन और काय इन तीनों की शुद्धि होनी चाहिए। इस के होने पर ही संकल्प सिद्ध हो सकता है /