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आप्त विगेरेना उपदेशवडे ज्यां सुधी तत्त्वनुं ज्ञान न थाय त्यां सुधी तेनापर श्रद्धा शी रीते थइ शके ? ते विषे शास्त्रमां वहां छे के-"ज्ञानवडे पदार्थों जणाय छे, दर्शनवडे तेपर श्रद्धा थाय छे, चारित्रवडे तेनुं ग्रहण थाय छे, अने तपवडे शुद्ध थवाय छे. " तेथी करीनेज पांचे आचारोगां ज्ञानाचार सौथी प्रथम कहेवाय छे, अने त्यारपछी दर्शनाचार छे. दर्शनाचार होवाथीज प्राये चारित्र ग्रहण कराय छे, तेथ दर्शनाचारनी पछी चारित्राचार होय छे. चारित्र ग्रहण कर्या पछी कर्मनी निर्जरामाटे तपस्या करबी जोइए, माटे चारित्राचार पछी तपाचार कहेवाय छे. ज्ञानाचार आदि चारने विषे सर्व शक्तिए करीने यत्न करवो, परंतु एकेने विषे वीर्यने गोपवधुं नहीं, ए हेतुथी वीर्याचाने छेल्लो कहेलो छे. आथी ज्ञाननुं परम उपकारीपणुं सिद्ध थाय छे. ज्ञानमां पण श्रुतज्ञाननुं मुख्यपणुं होवाथी तना आराधन माटे सर्वशक्ति पूर्वक यत्न करतो. कं छे के-" जो कदाच आखा दिवसमा एकज पद भणी शकाय, अथवा पंदर दिवसमा अर्ध श्लोक ज भणी शकाय, तो पण जो ज्ञान शीखवानी इच्छा होय तो तेटलो उद्यम पण छोडको नहीं."
सम्यग्दृष्टि ग्रहण करे सर्व कोइ शास्त्र श्रुतज्ञानज छे. कहां छे के - " व्याकरण, छंदस, अलंकार नाटक, काव्य, तर्क अने गणित विगेरे रूप श्रुतज्ञान सम्यग्दृष्टिना ग्रहण करवाथी पवित्र थयुं छतुं जयवंतु वर्ते छे. " सनग्र शास्त्रनी वात तो दूर रहो, परंतु एक श्लोक विगेरेनुं ज्ञान पण मोटा गुणने माटे थाय छे. कछु छे के - " जेम दोर