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दोषमा अने (आदि शब्दथी ) अभ्युदय आदिक गुणमां जे संशय रहित ज्ञान थाय छे, तथा जे कर्म बंधन, दुगेति गमनरूपी अनर्थ, अने परंपराथी मलता मोक्षरूपी गुणनी प्राप्तिवालुं छे, तेने तन्त्वना जाणनारा ओए " आत्मपरिणतिमत् " ज्ञान मानेतुं छे. अहीं दृष्टांत नीचे प्रमाणे जाणं.
अवळी चालना घोडा पर बेसवाथी परतंत्र थयेला स्वारने अंगभग तथा मरणादिक दोषमां तथा रुना समूहना कोमल स्पर्शादिक गुणमां संशय रहितपणुं थाय छे, तथा ते अंगभंगादिक अनर्थ, अने सुख स्पर्शादिक गुणनी प्राप्तिवाकुं छे, एम ते माने छे.
हवे तेज आत्मपरिणतिमत् ज्ञाननुं लिंगादिकथी निरुपण करता थका कहे छे
तथाविधप्रवृत्त्यादि - व्यंग्यं सदनुबंधि च ॥ ज्ञानावरणह्रासोत्थं, प्रायो वैराग्यकारणम् ॥ ५ ॥
अर्थ-तेवा प्रकारनी प्रवृत्ति आदिकथी प्रगट थनाएं, तथा शुभ अनुबंधवाळु तथा ज्ञानावरणादिकना नाशथी उत्पन्न थयेलं, अने प्राये करीने वैराग्यना कारणरूप ते " आत्मपरिणतिमत् " ज्ञान जाणं. ५.
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टीकानो भावार्थ — तेवा प्रकारनी अहिंसादिकने विषे जे प्रवृत्ति आदिक ते थकी प्रगट थवारूप छे चिह्न जेनुं तथा परंपराथी मोक्षफळने देवारूप छे सदनुबंध जेनो, एवं ते आत्मपरिणतिमत्