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________________ [८५ ] (३) समर्थक वाक्य में हि, यतः आदि समर्थनवाचक पदों का प्रयोग हो भी सकता है, नहीं भी। (४) रुय्यक तथा विश्वनाथ ने अर्थान्तरन्यास वहाँ भी माना है, जहाँ कार्य कारण के द्वारा या कारण का कार्य के द्वारा समर्थन पाया जाता है । मम्मट तथा पंडितराज केवल सामान्यविशेषभाव में ही अर्थान्तरन्यास मानते हैं। ठीक यही मत अप्यय दीक्षित का है। अर्थान्तरन्यास-दृष्टान्त :-३० दृष्टान्त । अर्थान्तरन्यास काव्यलिंग:-दे० काव्यलिंग। (२९) विकस्वर (१) विकस्वर का उल्लेख केवल जयदेव तथा अप्पय दीक्षित में मिलता है। (२) विकस्वर वहाँ होता है, जहाँ कवि एक बार किसी विशेष के समर्थन के लिए सामान्य का प्रयोग करता है, तदनन्तर उसे और अधिक स्पष्ट करने के लिए पुनः अन्य विशेष का उपादान करता है। (३) विकस्वर का यह तृतीय वाक्य ( या द्वितीय समर्थक वाक्य ) सदा विशेष रूप होगा। (४) यह वाक्य या तो 'इवादि' उपमा वाचकपदों के कारण उपमाशैली में होगा, जैसे 'एको हि दोषो गुणसन्निपाते निमजतींदोः किरणेष्विवांक:' में, या वह अर्थान्तरन्यासशैली में होगा। (५) प्राचीन आलंकारिक तथा पण्डितराज जगन्नाथ भी विकस्वर नहीं मानते । इनके मत से उपमाशैली वाले विकस्वर का अन्तर्भाव उपमा अलंकार में होगा, अर्थान्तरन्यास शैली वाले विकस्वर का अर्थान्तरन्यास में । । (३०) ललित (१) ललित अलंकार निदर्शना अलंकार का ही एक प्ररोह है, जहाँ दीक्षितादि ने नये अलंकार की कल्पना की है। (२) ललित अलंकार में प्रस्तुत धर्मी के साथ उसके स्वयं के धर्म का वर्णन न कर' केवल उसके प्रतिबिम्बभूत अप्रस्तुत के धर्म का वर्णन किया जाता है। (३) निदर्शना तथा ललित में केवल यही भेद है कि निदर्शना में कवि प्रस्तुत तथा अप्रस्तुत दोनों के बिब-प्रतिबिंबभूत धर्मों का साक्षात् उपादान करता है, तथा इस तरह दोनों का ऐक्य समारोप करता है, जब कि ललित में प्रस्तुत का धर्म ( बिंब) शम्दतः उपात्त नहीं होता, कवि केवल अप्रस्तुत धर्म ( प्रतिबिंब ) का ही प्रयोग करता है। (४) अन्य आलंकारिक ललित को अलग से अलंकार न मानकर इसका समावेश आर्थी. निदर्शना में ही करते हैं। ललित के लिए विशेष-दे० भूमिका पृ. ३०-३२ । (३१) विशेष (१) प्रथम विशेष में बिना आधार के आधेय का वर्णन किया जाता है, अथवा साक्षात आधार से भिन्न स्थान पर आधेय का वर्णन किया जाता है। (२) द्वितीय विशेष में एक ही वस्तु ( आधेय ) का अनेक स्थानों (आधारों) पर वर्णन किया जाता है।
SR No.023504
Book TitleKuvayalanand
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBholashankar Vyas
PublisherChowkhamba Vidyabhawan
Publication Year1989
Total Pages394
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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