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( ४ ) अप्रस्तुतप्रशंसा के 'प्रशंसा' शब्द का अर्थ केवल 'वर्णन' है, अतः यहाँ अप्रस्तुत पदार्थ का वर्णन पाया जाता है। यह आवश्यक नहीं कि वह प्रशंसापरक ( स्तुतिपरक ) हो ।
(५) सहृदय को प्रकरण के कारण यह ज्ञात होता है कि उक्त पक्ष में कौन प्रकृत है, कौन
अप्रकृत
(६) कवि की प्रधान विवक्षा प्रकृतपरक व्यंग्यार्थ में होती है, अप्रकृतपरक वाच्यार्थ में नहीं । यही कारण है, वह कभी अचेतन वापीतडागादि अथवा पशुपक्ष्यादि को भी संबोधन कर के उत्ति का प्रयोग कर सकता है जो वैसे अनर्गल प्रलाप सा दिखाई पड़ता है ।
(७) अप्रस्तुत प्रशंसा के पाँच भेद होते हैं :
१. सारूप्य निबन्धना ।
२. अप्रस्तुत विशेष से प्रस्तुत सामान्य की व्यञ्जना । ३. अप्रस्तुत सामान्य से प्रस्तुत विशेष की व्यञ्जना | ४. अप्रस्तुत कारण से प्रस्तुत कार्य की व्यञ्जना | ५. अप्रस्तुत कार्य से प्रस्तुत कारण की व्यञ्जना ।
अप्रस्तुतप्रशंसा तथा समासोक्ति - ३० समासोक्ति ।
अप्रस्तुतप्रशंसा तथा प्रस्तुतांकुरः - प्राचीन आलंकारिकों ने प्रस्तुतांकुर अलंकार को नहीं . माना है तथा उसका समावेश अप्रस्तुतप्रशंसा में ही किया हैं । दीक्षित ने प्रस्तुतांकुर को अलग से अलंकार माना है । अप्रस्तुतप्रशंसा तथा प्रस्तुतांकुर में यह साम्य है कि दोनों में दो अर्थ होते हैं, एक वाच्यार्थ, अपर व्यंग्यार्थं । वैषम्य यह है कि अप्रस्तुतप्रशंसा में वाच्यार्थं अप्रस्तुतपरक होता है, व्यंग्यार्थं प्रस्तुतपरक, जब कि प्रस्तुतांकुर में दोनों अर्थं दो भिन्न भिन्न प्रस्तुत पदार्थों से सम्बद्ध होते हैं ।
(१९) प्रस्तुतांकुर
( १ ) यह भी समासोक्ति तथा अप्रस्तुतप्रशंसा की तरह गम्यौपम्याश्रय अर्थालंकार है ।
( २ ) इसमें भी दो अर्थो की प्रतीति होती है, एक वाच्यार्थ, दूसरा व्यंग्यार्थं तथा दोनों अर्थ दो भिन्न भिन्न प्रस्तुतों से सम्बद्ध होते हैं ।
(३) अप्रस्तुतप्रशंसा की भाँति इसमें भी १. सारूप्यमूलक, २. प्रस्तुत कारण से प्रस्तुत कार्यकी व्यंजना, ३. प्रस्तुत कार्यं से प्रस्तुत कारण की व्यञ्जना के भेद होते हैं । सामान्य विशेष वाले भेदद्वय का संकेत प्रस्तुतांकुर में नहीं मिलता। क्योंकि प्रस्तुत एक ही हो सकता है या तो सामान्य ही या विशेष ही दोनों एक साथ भिन्न भिन्न दो प्रस्तुत नहीं हो सकते ।
( २० ) पर्यायोक्त
( १ ) पर्यायोक्त अलंकार में कवि व्यंग्यार्थ का किसी अन्य प्रकार की भंगिमा से अभिधान करता है ।
( २ ) रुय्यकादि के अनुसार वाच्यार्थं तथा व्यंग्यार्थं में परस्पर कार्यकारण सम्बन्ध होता है, किन्तु दीक्षित के मत से उनके कार्यकारण सम्बन्ध में पर्यायोक्त न होकर प्रस्तुतांकुर अलंकार होता है, अतः दीक्षित व्यंग्यार्थं को ही किसी सुन्दर ढंग से कहने में पर्यायोक्त मानते है ।
( ३ ) दोनों पक्ष - वाच्यार्थ तथा व्यंग्यार्थं प्रस्तुत होते हैं ।