SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 79
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ [ ७८ ] विनोक्ति:- . (१) सहोक्ति का ठीक उलटा अलंकार विनोक्ति है (२) इसका लक्ष्य एक वस्तु के अभाव में दूसरी वस्तु की दशा का संकेत करना है। (३) इसमें विना या उसके समानार्थक शब्द का प्रयोग किया जाता है। कभी-कभी विना शब्द के अभाव में भी विनार्थविवक्षा होने पर विनोक्ति अलंकार होता है। (४) अधिकतर आलंकारिकों ने विनोक्ति को भी सहोक्ति की तरह भेदप्रधान गम्यौपम्याश्रय अलंकार माना है। (दे० रुय्यक तथा विद्याधर का वर्गीकरण ) किंतु विनोक्ति गम्यौपम्याश्रय अलंकार नहीं है। यही कारण है कि एकावलीकार विद्यानाथ ने इसे लोकन्यायमूलक अलंकार माना है। (१५) समासोक्ति (१) समासोक्ति गम्यौपम्याश्रय अलंकार है। (२) इसमें प्रकृत पदार्थ के व्यवहार या वृत्तान्त का वाच्य रूप में वर्णन होता है। (३) इस प्रकृत व्यवहार रूप वाच्यार्थ के द्वारा अप्रकृत व्यवहार की व्यंजना कराई जाती है। (४) यह व्यंजना लिंगसाम्य तथा विशेषणसाम्य के कारण होती है। कवि प्रकृत पदार्थ के वर्णन के समय इस प्रकार के पुलिंग स्त्रीलिंगादि का तथा विशेषणों का प्रयोग करता है कि उससे सहृदय को बुद्धि में दूसरे हो क्षण अप्रकृत पदार्थ के व्यवहार की स्फूर्ति हो उठती है। अप्यय दीक्षित ने सारूप्य के आधार पर भी समासोक्ति मानी है, पर पंडितराज आदि ने उसका खण्डन किया है। (५) इसमें प्रकृत पदार्थ के विशेषण ही श्लिष्ट या साधारण होते हैं जिससे वे प्रकृत तथा अप्रकृत दोनों वृत्तान्तों में अन्वित होते हैं । विशेष्य कभी भी श्लिष्ट नहीं होता, अतः विशेष्य सदा प्रकृत पक्ष में ही मन्वित होता है। (६) समासोक्ति में रूपक की भाँति प्रकृत पर अप्रकृत का रूप समारोप नहीं होता, अपितु प्रकृत वृत्तांत पर अप्रकृत वृत्तांत का व्यवहारसमारोप पाया जाता है। समासोक्ति तथा श्लेष:-(१) समासोक्ति में काव्यवाक्य का वाच्यार्थ केवल प्रकृतपक्षक होता है, तथा उससे अप्रकृतपक्ष के व्यंग्यार्थ की प्रतीति होती है; जब कि श्लेष में दोनों (प्रकृताप्रकृत ) पक्ष काव्यवाक्य के वाच्यार्थ होते हैं । (२) समासोक्ति में केवल विशेषण ही ऐसे (श्लिष्ट ) होते हैं जो प्रकृत तथा अप्रकृत दोनों पक्षों में अन्वित होते हैं, जब कि श्लेष में विशेषण तथा विशेष्य दोनों श्लिष्ट होते हैं । समासोक्ति तथा अप्रस्तुतप्रशंसा:-मासोक्ति तथा अप्रस्तुतप्रशंसा दोनों गम्यौपम्याश्रय अलंकार है, तथा दोनों में दो अर्थों को प्रतीति होती है, इनमें एक वाच्यार्थ होता है, अन्य व्यंग्यार्थ। दोनों में भेद यह है कि समासोक्ति में वाच्यार्थ प्रकृत विषयक होता है, व्यंग्यार्थ अप्रकृत विषयक, जब कि अप्रस्तुतप्रशंसा में वाच्यार्थ अप्रकृतविषयक होता है, व्यंग्यार्थ प्रकृतविषयक । सभासोक्ति तथा एकदेशविवर्तिरूपका-लमासोक्ति तथा एकदेशविवर्तिरूपक में बड़ा सूक्ष्म भेद है । एकदेशविवर्तिरूपक में कवि किसी एक प्रकृत पदार्थ पर किसी अप्रकृत पदार्थ का आरोप निवद्ध करता है, सहृदय उससे संबद्ध अन्य प्रकृत पदार्थों पर तत्तत् अन्य अप्रकृत पदार्थों का आरोप आक्षिप्त कर लेता है। इस प्रकार रूपक के इस भेद में भी प्रकृत पर अप्रकृत का रूप समारोप पाया जाता है । समासोक्ति में अप्रकृत का स्पष्टतः कोई संकेत नहीं होता तथा यहाँ लिंगसाम्य
SR No.023504
Book TitleKuvayalanand
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBholashankar Vyas
PublisherChowkhamba Vidyabhawan
Publication Year1989
Total Pages394
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy