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________________ [ ७५ ] जब कि अप्रस्तुतप्रशंसा में अप्रस्तुत वाच्य होता है, प्रस्तुत व्यंग्य । यही कारण है कि अप्रस्तुतप्रशंसा में धर्म का प्रयोग केवल एक ही बार होगा, जब कि दृष्टांत में धर्म का प्रयोग दोनों वाक्यों में भिन्न-भिन्न होगा | (११) निदर्शना ( १ ) निदर्शनागम्यौपम्यमूलक अलंकार है । यही कारण है यहाँ औपम्य गम्य या आर्थ होता है । ( २ ) असंभवद्वस्तुसंबंध वाले निदर्शना भेद में दोनों पदार्थों ( प्रकृताप्रकृत में परस्पर बिप्रतिबिंब भाव होता है । (३) असंभवद्वस्तु संबंध वाली वाक्यगा निदर्शना में दो भेद होते हैं :- - अनेकवाक्यगा, एकवाक्यगा । अनेकवाक्यगा निदर्शना में अनेक वाक्यों को यत्-तत्, यदि तर्हि जैसे अव्ययों से अन्वित कर दिया जाता है, जैसे 'अरण्यरुदितं कृतं शवशरीरमुद्वर्तितं' आदि पद्य में । एकवाक्यगा निदर्शना में यत्-तत् आदि का प्रयोग नहीं किया जैसे 'दोर्भ्यामब्धि तितीर्षन्तस्तुष्टुवुस्ते गुणार्णवम् । ( ४ ) पदार्थगा निदर्शना में 'लीला, शोभा' आदि के दारा उपमान के धर्म को उपमेय पर आरोपित कर दिया जाता है । " ( ५ ) संभवद्वस्तुसंबंध वाली ( अथवा सदसदर्थबोधिका ) निदर्शना में किसी विशेष घटना को किसी सामान्य सिद्धांत का सूचक बताया जाता है। इसके लिए -' इति बोधयन् इति निदर्शयन् इति कथयन् इति विभावयन्' आदि का प्रयोग किया जाता है कभी कभी कवि केवल 'इति' का ही प्रयोग करता है । 9 निदर्शना तथा रूपक - रूपक तथा निदर्शना दोनों में यह समानता है कि यहाँ आरोप पाया जाता है, रूपक में विषय पर विषयी का ताद्रूप्यारोप होता है, जब कि निदर्शना में दो पदार्थों का परस्पर ऐक्यारोप पाया जाता है । कुछ ( अध्यय दीक्षित आदि ) अलंकारिकों के मत से निदर्शना तथा रूपक में यह भेद है कि निदर्शना में पदार्थों में वित्रप्रतिबिंबमाव होता है, जब कि रूपक बिंबप्रतिबिंबभाव नहीं होता। किंतु यह मत मान्य नहीं है। पंडितराज जगन्नाथ ने इस मत का खण्डन कर सिद्ध किया है कि रूपक में भी बिंबप्रतिबिंबभाव हो सकता है। पंडितराज के मत से निदर्शना तथा रूपक में सबसे बड़ा भेद यह है कि रूपक में प्रकृताप्रकृत में श्रौत या शाब्द सामानाधिकरण्य पाया जाता है, जब कि निदर्शना में यह सामानाधिकरण्य शाब्द न होकर आर्थ ही होता है । इसीलिए उन स्थानों पर जहाँ यत् तत् के प्रयोग के द्वारा एक वाक्य पर दूसरे वाक्य का श्रौत सामानाधिकरण्य पाया जाता है, पंडितराज निदर्शना नहीं मानते, वे यहाँ वाक्यार्थरूपक जैसा भेद मानते हैं । मम्मट दीक्षित आदि वहाँ भी निदर्शना ही मानते हैं । निदर्शना तथा दृष्टान्त - निदर्शना तथा दृष्टान्त दोनों में औपम्य गम्य होता है, यहाँ एक से अधिक वाक्य होते हैं (जैसे अनेक वाक्यगा निदर्शना में) दोनों में सादृश्य वाक्यार्थगत होता है। साथ ही दोनों में बिंबप्रतिबिंबभाव पाया जाता हैं । किंतु पहले तो दृष्टान्त में प्रयुक्त अनेक वाक्य परस्परनिरपेक्ष होते हैं, जब कि निदर्शना में वे परस्परसापेक्ष होते हैं, दूसरे दृष्टान्त में प्रकृत तथा अप्रकृत पदार्थ के धर्म भिन्न-भिन्न होते हैं तथा उनका निर्देश किया जाता है, जब कि निदर्शना में ये धर्म अभिन्न होते हैं तथा उनका निर्देश नहीं किया जाता ।
SR No.023504
Book TitleKuvayalanand
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBholashankar Vyas
PublisherChowkhamba Vidyabhawan
Publication Year1989
Total Pages394
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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