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________________ [ ७१ ] अतिशयोक्ति और रूपक - (दे० रूपक ) अतिशयोक्ति और उत्प्रेक्षा - ( दे० उत्प्रेक्षा ) । पाँचवी अतिशयोक्ति और असंगति-- दोनों कार्यकारणमूलक अलंकार हैं, एक कार्यकारण के कालगत मान से संबद्ध हैं, दूसरा कार्यकारण के देशगत मान से । कार्यकारण के कालगत व्यतिक्रम के प्रौढोक्तिमय वर्णन में पाँचवी ( तथा छठी) अतिशयोक्ति होती है; कार्यकारण के देशगत व्यतिक्रम के प्रौढोक्तिमय वर्णन में असंगति अलंकार होता है । (५) स्मरण, संदेह तथा भ्रांतिमान् ( १ ) तीनों सादृश्यमूलक अलंकार हैं । स्मरण भेदाभेदप्रधान अलंकार होने के कारण उपमा के वर्ग का अलंकार है जब कि संदेह एवं भ्रांतिमान् अभेदप्रधान अलंकार होने के कारण रूपक वर्ग के अलंकार हैं । ( २ ) स्मरण अलंकार में किसी वस्तु को देखकर सदृश वस्तु का स्मरण हो आता है । अतः इसमें या तो उपमान को देखकर उपमेय का स्मरण हो आता है या ऐसा भी हो सकता है कि उपमेय को देखकर उपमान का स्मरण हो आय । साथ ही स्मरण अलंकार में किसी वस्तु को देखकर तत्सदृश वस्तु से संबद्ध वस्तु के स्मरण का भी समावेश होता है । ( ३ ) संदेह अलंकार में एक ही प्रकृत पदार्थ में कविप्रतिभा के द्वारा अप्रकृत की संशयावस्था उत्पन्न की जाती है । यह संशय आहार्य या स्वारसिक किसी भी तरह का हो सकता है । अलंकार होने के लिए किसी भी संदेह चमत्कार होना आवश्यक है, अतः 'स्थाणुर्वा पुरुषो वा' संदेहालंकार नहीं हो सकता | आलंकारिकों ने इसके तीन भेद माने हैं:-शुद्ध, निश्चयगर्भ तथा निश्चयान्त । ( ४ ) भ्रांतिमान् अलंकार में कविप्रतिभा के द्वारा प्रकृत में अप्रकृत का मिथ्याज्ञान होता है । यह ज्ञान सदा अनाहार्य या स्वारसिक होता है । सादृश्यमूलक भ्रांति होने पर ही यह अलंकार होता है। साथ ही अलंकार होने के लिए चमत्कार का होना आवश्यक है, अतः शुक्ति में रजतभ्रांति को अलंकार नहीं माना जायगा । संदेह तथा उत्प्रेक्षा - (दे० उत्प्रेक्षा ) । संदेह तथा रूपक - (दे० रूपक ) 1 भ्रांतिमान् तथा उत्प्रेच्चा- दोनों अलंकारों में सादृश्य के कारण प्रकृत में अप्रकृत का ज्ञान होता है, किंतु भ्रांतिमान् में यह ज्ञान स्वारसिक होता है, उत्प्रेक्षा में आहार्य; साथ ही भ्रांतिमान् में मिथ्याज्ञान निश्चित होता है, व्यक्ति को केवल अप्रकृत का ही ज्ञान होता है, जब कि उत्प्रेक्षा में ज्ञान अनिश्चयात्मक होता है, अर्थात् यहाँ प्रकृत में अप्रकृत की केवल संभावना होती है, यही कारण है कि उत्प्रेक्षा में व्यक्ति को प्रकृत तथा अप्रकृत दोनों का भान रहता है । भ्रांतिमान् तथा प्रथम अतिशयोक्ति - दोनों सादृश्यमूलक अलंकार हैं। दोनों में प्रकृत में केवल अप्रकृत का ज्ञान होता है। साथ ही दोनों में प्रकृत या विषय का उपादान नहीं होता । किंतु भ्रांतिमान् में अभेदज्ञान किसी दोष पर आश्रित है, व्यक्ति ( चकोर ) को अपनी गलती से 'मुख' चन्द्रमा दिखाई पड़ता है, यही कारण है, भ्रांतिमान् में अमेदज्ञान अनाहार्य या स्वारसिक होता है, जब कि अतिशयोक्ति में यह आहार्य होता है । व्यक्ति यह जानते हुए भी यह मुख है, उसे चंद्रमा कहता है । भ्रांतिमान् तथा रूपक — दोनों अभेदप्रधान अलंकार हैं । भ्रांतिमान् अनाहार्यज्ञान पर
SR No.023504
Book TitleKuvayalanand
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBholashankar Vyas
PublisherChowkhamba Vidyabhawan
Publication Year1989
Total Pages394
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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