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________________ [ ६८ ] च्छित्त्याश्रय ), परिकरांकुर (विशेष्यविच्छित्त्याश्रय ), श्लेष (विशेषण विशेष्यविच्छित्त्याश्रय ) अमस्तुतप्रशंसा, अर्थान्तरन्यास, पर्यायोक्ति, व्याजस्तुति, आक्षेप । (२) विरोधगर्भ-विरोध, विभावना, विशेषोक्ति, अतिशयोक्ति, असंगति, विषम, सम, विचित्र, अधिक, अन्योन्य, विशेष, व्याघात । (३) श्रृंखलाबन्ध-कारणमाला, एकावली, मालादीपक, सार । (४) तर्कन्यायमूलक-काव्यलिंग, अनुमान। . (५) वाक्यन्यायमूलक-यथासंख्य, पर्याय, परिवृत्ति, परिसंख्या, अर्थापत्ति, विकल्प, ____समुच्चय, समाधि। (६) लोकन्यायमूलक-प्रत्यनीक, प्रतीप, मीलित, सामान्य तद्गुण, अतद्गुण, उत्तर । (७) गूढार्थप्रतीतिमूलक-सूक्ष्म, ब्याजोक्ति, वक्रोक्ति, स्वभावोक्ति, भाविक, संसृष्टि, संकर । कतिपय अलंकारों का स्वरूप और उनका अन्य अलंकारों से वैषम्य (१) उपमा (१) उपमा में एक वस्तु की तुलना किसी अन्य वस्तु से गुणक्रियादि धर्म के आधार पर की जाती है। (२) यह भेदाभेदप्रधान साधर्म्यमूलक अलंकार है। (३) इसके चार तत्त्व होते हैं-उपमेय, उपमान, साधारण धर्म तथा वाचक शब्द । चारों तत्त्वो का प्रयोग होने पर पूर्ण उपमा होती है और किसी एक या अधिक का __ अनुपादान होने पर लुप्ता होती है। उपमा तथा अनन्वय-उपमा के उपमान तथा उपमय भिन्न भिन्न होते हैं, अनन्वय में उपमेय ही स्वयं का उपमान होता है। उपमा तथा उपमेयोपमा-उपमा एक वाक्यगत होती है, उपमेयोपमा सदा दो वाक्यों में होती है तथा वहाँ दो उपमाएँ पाई जाती हैं। उपमेयोपमा में प्रथम वाक्य का उपमेय द्वितीय उपमा का उपमान तथा प्रथम उपमा का उपमान द्वितीय उपमा का उपमेय हो जाता है। उपमा तथा उत्प्रेक्षा-उपमा भेदाभेदप्रधान साधर्म्यमूलक अलंकार है, जब कि उत्प्रेक्षा अभेदप्रधान या अध्यवसायमूलक अलंकार है। उपमा में उपमेय तथा उपमान की तुलना की जाती है, जब कि उत्प्रेक्षा में प्रकृत ( उपमेय ) में अप्रकुत (उपमान ) की संभावना की जाती है । उपमा तथा रूपकः-उपमा भेदाभेदप्रधान अलंकार है, जब क रूपक अभेदप्रधान अलंकार है । उपमा का वास्तविक चमत्कार साधर्म्य के कारण होता है, जब रूपक का चमत्कार विषय ( उपमेय ) पर विषयी ( उपमान.) के आरोप या ताद्रूप्यापत्ति के कारण होता है। (२) रूपक (१) रूपक अभेदप्रधान साधर्म्यमूलक अलंकार है। अतः इसमें सादृश्य सम्बन्ध का होना आवश्यक है । दूसरे शब्दों में यहाँ गौणी सारोपा लक्षण होना आवश्यक है। (२) इसमें आरोपविषय ( उपमेय ) पर आगेप्यमाण ( उपमान ) का आरोप किया जाता है, अर्थात् यहाँ उपमेय को उपमान के रंग में रंग दिया जाता है । ती है।
SR No.023504
Book TitleKuvayalanand
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBholashankar Vyas
PublisherChowkhamba Vidyabhawan
Publication Year1989
Total Pages394
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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