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________________ जाना' ( वाच्यार्थ ), 'विकसित हो जाना' ( लक्ष्यार्थ)। ये दोनों अर्थ एक दूसरे से परस्पर भिन्न हैं ही। आप वाला अर्थ लेने पर तो उक्त लक्षण यहाँ लागू नहीं होगा। ___एक दलील यह भी दी जा सकती है कि उक्त पद से हमारा तात्पर्य यह है कि विषयिप्रतिपादक शब्द से अलग अन्य विषयप्रतिपादक का अभाव हो । पर हम ऐसे स्थल पेश कर सकते हैं, जहाँ विषयिप्रतिपादक तथा विषयप्रतिपादक का अलग-अलग प्रयोग किये जाने पर भी अतिशयोक्ति मानी जाती है : पल्लवतः कल्पतरोरेष विशेषः करस्य ते वीर । भूषयति कर्णमेकः परस्तु कर्ण तिरस्कुरुते ॥ __ इस पद्य में 'कर्ण' का अर्थ कान तथा कुन्तीपुत्र कर्ण दोनों है, अतः यहाँ श्लेष है । ध्यान देने की बात यह है कि दोनों स्थानों पर 'कर्ण' पद के दो-दो अर्थ होंगे, अतः यहाँ यमक अलंकार न होगा। वहाँ श्लेषमूलातिशयोक्ति है। इस पद्य में विषयिप्रतिपादक 'कर्ण' तथा विषयप्रतिपादक, 'कर्ण' का अलग-अलग प्रयोग पाया जाता है, अतः यह तात्पर्य लेने पर कि जहाँ उनका अलगअलग प्रयोग न होगा वहीं अतिशयोक्ति हो सकेगी, उक्त लक्षण यहाँ संगत न बैठ सकेगा। पूर्वपक्षी फिर एक दलील देगा। वह यह कह सकता है कि 'विषयस्यानुपादानात्' से हमारा तात्पर्य यह है कि विषयिप्रतिपादक शब्द से सर्वथा मिन्न ( विलक्षण) विषयप्रतिपादक का अभाव हो । ( ऐसा मानने पर तो 'भूषयति कर्णमेकः..' इत्यादि में उक्त लक्षण की व्याप्ति हो जायगी क्योंकि वहाँ दोनों के तत्तत् प्रतिपादक अलग-अलग होते हुए भी 'एक ही' (कर्ण) हैं, सर्वथा विलक्षण नहीं। ) पर इसमें भी दोष है । निम्न उदाहरण ले लें उरोभुवा कुंभयुगेन जंभितं नवोपहारेण वयस्कृतेन किम् । त्रयासरिदुर्गमपि प्रतीर्य सा नलस्य तन्वी हृदयं विवेश यत् ॥ ___ इस पथ में 'कुंभयुगेन' (विषयिप्रतिपादक ) के द्वारा 'कुचद्वय' (विषय ) का निगरण कर लिया गया है । किन्तु कवि ने साथ ही 'उरोभुवा' पद के द्वारा विषयिप्रतिपादक विलक्षण विषय. प्रतिपादक का भी प्रयोग किया ही है। संभवतः पूर्वपक्षी यह कह सकते हैं कि 'उरोभुवा' पद विषयिप्रतिपादकविलक्षण है, किन्तु वह 'विषयतावच्छेदक' (कुचद्वय के विशिष्ट धर्म) के रूप में प्रयुक्त नहीं हुआ है, अतः जहाँ 'विषयतावच्छेदक' रूप में विषयिप्रतिपादकविलक्षण विषयप्रतिपादक हो, उसको हम अतिशयोक्ति में न मानेंगे। पर इतना होते हुए भी कई ऐसे भी स्थल हैं जहाँ अतिशयोक्ति में विषयी के प्रतिपादक शब्द का प्रयोग पाया जाता है, साथ ही उससे सर्वथा विलक्षण ऐसे विषयप्रतिपादक शब्द का भी प्रयोग होता है, जो विषयतावच्छेदक' रूप में विवक्षित होता है। जैसे निम्न पद्य में ध्वान्तस्य वामोरु विचारणायां वैशेषिकं चारु मतं मतं में। औलूकमाहुः खलु दर्शन यत्क्षम नमस्तत्त्वनिरूपणाय । 'हे संदरि, मेरी समझ में अंधकार के विषय में विचार करने में वैशेषिक दर्शन सबसे अधिक सुंदर है, क्योंकि उस दर्शन को 'औलूक दर्शन' ( उल्लू की दृष्टि वैशेषिक दर्शन का दूसरा नाम ) कहा जाता है, तभी तो वह 'अंधकार' तत्त्व के निरूपण में समर्थ है। इस पब में 'औलूकं दर्शन' ( उल्लू की दृष्टि ) विषयी है, वैशेषिकं मतं' (बैशेषिक दर्शन ) विषय । कवि ने दोनों के प्रतिपादक शब्दों का प्रयोग अलग २ किया है, साथ ही विषय प्रतिपादक
SR No.023504
Book TitleKuvayalanand
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBholashankar Vyas
PublisherChowkhamba Vidyabhawan
Publication Year1989
Total Pages394
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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