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________________ [ ५४ ] (३) साथ ही इस लक्षण की अतिव्याप्ति 'न पमं मुखमेवेदं' इस तत्त्वाख्यानोपमा ( नामक दण्डी के उपमाभेद ) में भी नहीं होगी, क्योंकि वहाँ अप्रकृत का निषेध कर प्रकृत की कल्पना पाई जाती है, जो उक्त सरणि से ठीक उलटी बात है। (४) उक्त लक्षण में 'प्रकृतस्य निषेधेन' का प्रयोग करने का भी खास कारण है। कई आलंकारिकों ने इसके लक्षण में पूर्वकालिक क्रिया का प्रयोग किया है-'प्रकृतं प्रतिषिध्यान्य. स्थापनं स्यादपह्नतिः' या निषिध्य विषयं साम्यादारोप:'-किन्तु ऐसा करना ठीक नहीं। हम देखेंगे कि अपहुति अलंकार के दो प्रकार होते हैं-(१) कभी तो पहले वाक्य में प्रकृत का निषेष कर तदनंतर उस पर अप्रकृत का अरोप किया जाता है, (२) कभी पहले वाक्य में अप्रकृत का आरोप किया जाता है, तदनंतर प्रकृत का निषेध करते हैं। लक्षण में पूर्वकालिक क्रिया का प्रयोग करने पर यह लक्षण पहले भेद में तो संगत बैठेगा, पर दूसरे में नहीं। इसीलिए उक्त लक्षण में 'प्रकृतस्य निषेधेन' में तृतीयांत पद का प्रयोग किया गया है। ___ अपहुति के सर्वप्रथम दो भेद होते हैं :-वाक्यभेदवती तथा वाक्याभेदवती । वाक्यभेदवती में सदा दो वाक्य होंगे, एक में प्रकृत का निषेध होगा, दूसरे में अप्रकृत का आरोप । इनमें से कवि कभी प्रकृत के निषेध वाले वाक्य को पहले रखता है, कभी अप्रकृत के आरोप वाले वाक्य को । इसीलिए इसके दो भेद हो जाते हैं :-(१) अपहवपूर्वक आरोप (२) आरोपपूर्वक अपहव । एकवाक्यगता अपहुति में छल, कैतव, कपट, व्याज, वपुः आदि शब्दों के द्वारा प्रकृत का निषेध कर अप्रकृत का आरोप किया जाता है । इसमें उक्त दो भेद नहीं होते। चित्रमीमांसा में दीक्षित ने एक अन्य अपहतिभेद का भी संकेत किया है । वे बताते हैं कि कुछ विद्वानों का मत है कि जिस तरह सादृश्यव्यक्ति के लिए प्रयुक्त अपह्नव में अपहति अलंकार होता है वैसे ही अपहव (प्रकृत वस्तु के छिपाने के लिए) प्रयुक्त सादृश्यनिबंधन में भी अपहुति अलंकार होता है । दीक्षित के इस संकेत का आधार रुय्यक का अलंकारसर्वस्त्र है यद्यपि रुय्यक ने अपहुति के प्रकरण में वक्ष्यमाण अपहतिभेद का संकेत नह। कया है, तथापि अलंकारसर्वस्व के श्लेष प्रकरण के प्रसंग में निम्न पद्य को उद्धृत कर उसमें अपहति का द्वितीय भेद माना है । पर इतना होते हुए भी रुय्यक तथा जयरथ इसे व्याजोक्ति में ही अन्तर्भावित मानने के पक्ष में हैं। (दे० अलंकारसर्वस्व पृ० १३१) 'सादृश्यव्यक्तये यत्रापहवोऽसावपतिः। अपह्नवाय सादृश्यं यत्रास्त्येषाप्यपद्भुतिः॥ (चित्र० पृ० ८५) दीक्षित ने इस अपहति को ही कुवलयानंद में 'छेकापद्धति' कहा है। इसका उदाहरण निम्न है: आकृष्यादावमन्दग्रहमलकचयं वक्त्रमासज्य वक्त्रे, कण्ठे लग्नः सुकण्ठः प्रसरति कुचयोर्दत्तगाढांगसंगः॥ बद्धासक्तिनितम्बे पतित चरणयोर्यः स ताहा प्रियो मे, बाले लज्जा निरस्ता न हि न हि सरले चोलकः किं त्रपाकृत् ॥ 'पहले पहल जोरों से केशसमूह को खींच कर, मुख में मुख डाल कर, वह सुन्दर कण्ठवाला कण्ठ में लग कर, स्तनों का गाढ़ालिंगन करता हुआ बढ़ता है, वह नितंब में आसक्त हो चरणों में गिरता है, ऐसा वह मुझे बहुत प्यारा है'-किसी सखी के इन वचनों को सुनकर दूसरी सखी कहती है-'बाले, क्या सचमुच तू वेशर्म हो गई है (जो प्रिय के साथ की गई अपनी रतिक्रीडा की बातें कर रही है)। पहली सखी वास्तविकता को छिपाने के लिए कहती है 'नहीं, सरल बुद्धि
SR No.023504
Book TitleKuvayalanand
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBholashankar Vyas
PublisherChowkhamba Vidyabhawan
Publication Year1989
Total Pages394
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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