________________
[ ४७ ]
तीसरे 'गौर्वाहीकः' जैसे अचमत्कारी स्थलों में भी रूपक अलंकार मानना पड़ेगा क्योंकि वहाँ यह लक्षण अतिव्याप्त होता है ।
इसके साथ ही दीक्षित ने ‘उपमैव तिरोभूतभेदा रूपकमुच्यते' तथा 'तद्रूपकमभेदोऽयमुपमानोपमेययोः' प्राचीनों के इन अन्य लक्षणों में भी अतिव्याप्ति आदि दोष बताये हैं। दीक्षित रूपक का निम्न लक्षण देते हैं :
:
बिम्बाविशिष्टे निर्दिष्टे विषये यद्यनि हुते ।
उपरञ्जकतामेति विषयी रूपकं तदा ॥ (चित्र० पू० ५६ )
'जहाँ बिम्बा विशिष्ट ( बिम्बप्रतिबिम्बभावरहित ), शब्दतः उपात्त ( निर्दिष्ट ), तथा अनित ( जिसका निषेध या गोपन न किया गया हो ) बिषय ( मुखादि ) पर विषयी ( चन्द्रादि ) उपरक्षकता को प्राप्त हों, अर्थात् तद्विशिष्ट विषय को अपने रंग में रंग दे, वहाँ रूपक अलंकार होता है ।" इस लक्षण में निम्न बातें पाई जाती हैं :
--
( १ ) विषय 'बिम्ब' रूप न हो अर्थात् विषय तथा विषयी में बिम्बप्रतिबिम्बमाव न हो, बिम्बप्रतिबिम्बभाव होने पर वहाँ निदर्शना अलंकार हो जायगा । अतः निदर्शना का वारण करने के लिए 'बिम्बाविशिष्टे' कहा गया है ।
( २ ) साथ ही विषय का स्वशब्दतः निर्देश किया गया हो, क्योंकि उसका स्वशब्दतः निर्देश न होने पर अतिशयोक्ति होगी । अतः 'निर्दिष्टे' के द्वारा अतिशयोक्ति का वारण किया गया है । साथ ही इस सम्बन्ध में इसका भी संकेत कर दिया जाय कि व्यंग्य रूपक में विषय का तो निर्देश होता ही है, किन्तु विषयी का निर्देश नहीं होता, अतः इस लक्षण का समन्वय वहाँ हो ही जायगा । जो लोग कार्यकारणमूलक या अन्य प्रकार के सादृश्येतरमूलक आरोप में रूपक न मान कर 'हेतु' अलंकार मानते हैं, उनके मत से 'विषये' का अर्थ 'उपमेये' लेना होगा । किन्तु जो लोग ( एकावलीकार विद्याधरादि ) वहाँ भी रूपक मानते हैं उनके मत से 'विषये' का अर्थ केवल 'धर्मिणि' लेना होगा ।
( ३ ) 'अनिह्नुते' के द्वारा इस लक्षण में इस बात का संकेत किया गया है कि यहाँ विषय का निषेध नहीं किया जाता, अतः इससे निषेध परक ( अपहृत्रमूलक ) अपह्नुति का वारण हो जाता है ।
( ४ ) 'उपरञ्जकतां' का अर्थ है - ' आहार्यताद्रूप्यगोचरतां' अर्थात् कवि मुखादि तथा चन्द्रादि को कल्पित ( स्वेच्छाकृत, आहार्य ) ताद्रूप्य का विषय बना दे । इसके द्वारा सन्देह, उत्प्रेक्षा. समासोक्ति, परिणाम तथा भ्रांतिमान् का वारण हो जाता है। संदेह तथा उत्प्रेक्षा में निश्चय नहीं
'सादृश्येतर संबन्ध' होने पर भी जहाँ कारण पर कार्य का आरोप पाया जाता है, वहाँ रूपक अलङ्कार ही होता है, जैसे इस पद्य में, जहाँ 'चन्द्र' ( कारण ) पर 'नेत्रानन्द' ( कार्य ) का आरोप पाया जाता है :
'ततः कुमुदनाथेन कामिनीगण्डपाण्डुना । नेत्रानन्देन चन्द्रेण माहेंद्री दिगलंकृता ॥'
पण्डितराज ने इस मत को नहीं माना है । वे प्राचीनों के कि सादृश्य सम्बन्ध होने पर ही रूपक हो सकेगा । दीक्षित ने भी दिया है, जो कारण पर कार्य के आरोप में रूपक न मानकर
इसी मत की प्रतिष्ठापना करते हैं चित्रमीमांसा में एक दूसरा मत 'हेतु' अलंकार मानते हैं :
(दे० चित्रमीमांसा पृ० ५५-५६ )