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________________ २६६ कुवलयानन्दः यथा वा ( उ० राम० २।१०) हे हस्त दक्षिण ! मृतस्य शिशोजिस्य ____ जीवातवे विसृज शूद्रमुनौ कृपाणम् | रामस्य गात्रमसि निर्भरगर्भखिन्न ___ सीताविवासनपटोः करुणा कुतस्ते ? ।। अत्र रामस्य स्वहस्तं प्रति 'रामस्य गात्रमसि' इति वचनमनुपयुक्तं सत् 'रामस्य' इत्यनेन स्वस्यात्यन्तनिष्करुणत्वं गर्भीकरोति। तच्च 'निर्भरे'त्यादिविशेषणेनाविष्कृतम् । यद्यप्यनयोविधिनिषेधयोरुदाहरणेषु व्यङ्ग-थान्यर्थान्तरसंक्रमितवाच्यरूपाणि तथापि न ध्वनिभावास्पदानि, स्वोक्त्यैव व्यङ्ग विशेषाविष्करणात् । व्यङ्गथाविष्करणे चालङ्कारत्वमेवेति प्राक्प्रस्तुताङ्कुरप्रकरणे व्यवस्थितत्वात् । पूर्व बाधितौ विधिप्रतिषेधौ आक्षेपभेदत्वेनोक्तौ । इह तु प्रसिद्धौ विधिप्रतिषेधौ तत्प्रतिद्वन्द्विनावलंकारत्वेन वर्णिताविति भेदः ।। १६६ ।। १०० हेत्वलङ्कारः हेतोर्हेतुमता साधं वर्णनं हेतुरुच्यते । असावुदेति शीतांशुर्मानच्छेदाय सुभ्रुवाम् ॥ १६७ ॥ उत्तररामचरित से राम की उक्ति है । वे अपने दाहिने हाथ से कह रहे हैं :-हे दक्षिण हस्त, ब्राह्मण के मृत पुत्र को पुनर्जीवित करने के लिए तू शूद्रमुनि की ओर खड्ग उठा ले। अरे तू उस निष्करुण राम के शरीर का अङ्ग है, जिसने गर्भ से खिन्न सीता को वनदे दिया । तुझे करुणा कहाँ से ?' ___ यहाँ राम के द्वारा अपने ही हाथ के लिए प्रयुक्त वचन 'तू राम के शरीर का अङ्ग है' ठीक नहीं दिखाई पड़ता, किंतु 'रामस्य' इस पद के द्वारा यहाँ राम के अत्यधिक निर्दय होने के भाव को व्यक्त करता है । यह 'निर्भर' इत्यादि विशेषण के द्वारा प्रगट किया गया है। यद्यपि विधि तथा प्रतिषेध के इन उदाहरणों में व्यंग्यार्थ अर्थान्तरसंक्रमितवाच्यरूप पाये जाते हैं, तथापि इन्हें ध्वनिकाव्य के उदाहरण नहीं कहा जा सकता। क्योंकि उक्ति के द्वारा ही व्यंग्यविशेष को प्रगट कर दिया गया है। जहाँ व्यंग्य स्पष्ट हो जाय, वहाँ अलंकार ही माना जाना चाहिए, इस बात की स्थापना हम प्रस्तुतांकुर अलंकार के प्रक. रण में कर चुके हैं। पूर्वबाधित विधिनिषेध को हमने आक्षेप अलङ्कार के भेद माना है। यहाँ वर्णित विधि प्रतिषेध नामक अलंकार प्रसिद्ध होने कारण (पूर्व बाधित न होने के कारण) उनके प्रतिद्वन्द्वी हैं, अतः वे अलग से अलंकार माने गये हैं (तथा इनका आक्षेप के उन भेदों में अन्तर्भाव नहीं हो सकता)। १००. हेतु अलंकार १६७-जहाँ हेतुमान् (कार्य) के साथ हेतु (कारण) का वर्णन किया जाय, वहाँ हेतु नाम अलंकार होता है। जैसे, यह चन्द्रमा सुन्दर भौंहों वाली रमणियों के मान का खंडन करने के लिए उदय हो रहा है।
SR No.023504
Book TitleKuvayalanand
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBholashankar Vyas
PublisherChowkhamba Vidyabhawan
Publication Year1989
Total Pages394
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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