SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 329
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २३२ कुवलयानन्दः यथा सर्वदा सर्वदोऽसीति मिथ्या संस्तूयसे बुधैः । नारयो लेभिरे पृष्ठं न वक्षः परयोषितः ।। अत्र हि वाच्यया निन्दया परिसंख्यारूपेण ततोऽन्यत्सर्वमर्थिनामभिमतं दीनारादि दीयते इति स्तुत्यन्तरमपि प्रतीयते । एवं च येषूदाहरणेषु 'कस्ते शौर्यमदो योद्धम्' इत्यादिषु गुणदोषादिषु गुणदोषीकरणादिकमेव व्याजस्तुतिरूप. तयावतिष्ठते, तत्र लेशव्याजस्तुत्योः संकरोऽस्तु। इत्थमेव हि व्याजस्तुत्यप्र. स्तुतप्रशंसयोरपि प्राक् संकरो वर्णितः ।। १३८ ॥ ७३ मुद्रालङ्कारः सूच्यार्थसूचनं मुद्रा प्रकृतार्थपरैः पदैः। नितम्बगुर्वी तरुणी दृग्युग्मविपुला च सा ॥ १३९ ॥ अत्र नायिकावर्णनपरेण 'युग्मविपुला पदेनास्यानुष्टुभो युग्मविपुलानामत्वरूपसूच्याथेसूचनं मुद्रा । यद्यप्यत्र ग्रंथे वृत्तनाम्नो नास्ति सूचनीयत्वं, तथाप्य. स्योत्तराधस्य लक्ष्यलक्षणयुक्तच्छन्दःशास्त्रमध्यपातित्वेन तस्य सूचनीयत्वमस्तीति तदभिप्रायेण लक्षणं योज्यम् । एवं नवरत्नमालायां तत्तद्रत्ननामनिवेशेन तुम्हारे यश से श्वेत है। कहीं कहीं व्याजस्तुति के उदाहरणों में भी गुण को दोष बना दिया जाता है, किन्तु इतना होने पर भी स्तुति का विषय दूसरा व्यक्ति भी देखा जाता है । जैसे कोई कवि किसी राजा की निन्दा के व्याज से प्रशंसा कर रहा है:-हे राजन् , पण्डित लोग झूठे ही तुम्हारी इस तरह स्तुति करते हैं कि तुम सदासर्वद (सब वस्तु के देनेवाले) हो। पर तुम्हारे शत्रुओं ने कभी भी तुम्हारे पृष्ठ भाग को प्राप्त नहीं किया, न वैरिस्त्रियों ने तुम्हारि वक्षःस्थल को ही। ___ यहाँ निन्दा वाच्य है इसके द्वार इन वस्तुओं से भिन्न अन्य सभी वस्तु को तुमने याचकों को दे दिया यह स्तुति भी व्यञ्जित होती है। इस प्रकार जिन उदाहरणों में-जैसे 'कस्ते शौर्यमदो यो ' इत्यादि में-गुणदोषादि के केवल गुणदोषीकरणादि की ब्याजस्तुति है, वहाँ लेश तथा व्याजस्तुति का सङ्कर हो सकता है। इसी तरह व्याजस्तुति तथा अप्रस्तुतप्रशंसा का भी सङ्कर होता है जिसका वर्णन पहले किया जा चुका है। ७३. मुद्रा अलङ्कार १३९-प्रकृत विषय के अर्थ से सम्बद्ध पदों के द्वारा जहाँ सूचनीय अर्थ की सूचना दी जाय, वहाँ मुद्रा अलङ्कार होता है। जैसे, वह नायिका नितम्बभाग में गुरु तथा नेत्रद्वय में विशाल है । (उस तरुणी नायिका के नितम्ब भारी तथा नेत्र कर्णान्तायत हैं।) ___ यहाँ नायिका के लिए 'दृग्युग्मविपुला' विशेषण का प्रयोग किया गया है । इस पद में 'युग्मविपुला' पद अनुष्टुप् छन्द के युग्ममिपुला नामक भेद के सूच्य अर्थ की भी सूचना कर रहा है, अतः मुद्रा अलङ्कार है। यद्यपि इस अलकारग्रन्थ (कारिका भाग) में छन्द के नाम की सूचना का ऐसा कोई संकेत नहीं है, तथापि इसके उत्तरार्ध के लक्ष्य
SR No.023504
Book TitleKuvayalanand
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBholashankar Vyas
PublisherChowkhamba Vidyabhawan
Publication Year1989
Total Pages394
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy