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________________ लेशालङ्कारः ७२ लेशालङ्कारः लेशः स्याद्दोषगुणयोर्गुणदोषत्वकल्पनम् । अखिलेषु विहङ्गेषु इन्त स्वच्छन्दचारिषु || शुक ! पञ्जरबन्धस्ते मधुराणां गिरां फलम् ॥ १३८ ॥ दोषस्य गुणत्वकल्पनं गुणस्य दोषत्वकल्पनं च लेशः । उदाहरणम् - राज्ञोऽ भिमते विदुषि पुत्रे चिरं राजधान्यां प्रवसति तद्दर्शनोत्कण्ठितस्य गृहे स्थितस्य पितुर्वचनमप्रस्तुतप्रशंसारूपम् । तत्र प्रथमार्धे इतरविहगानामवकृत्व दोषस्य स्वच्छन्दचरणानुकूलतया गुणत्वं कल्पितम् । द्वितीयार्धे मधुरभाषित्वस्य गुणस्य पञ्जरबन्धहेतुतया दोषत्वं कल्पितम् । न चात्र व्याजस्तुतिराशङ्कनीया । न ह्यत्र विहगान्तराणां स्तुतिव्याजेन निन्दायां शुकस्य निन्दाव्याजेन स्तुतो च तात्पर्यम्, किन्तु पुत्रदर्शनोत्कण्ठितस्य पितुर्दोषगुणयोर्गुणदोषत्वाभिमान एवात्र श्लोके निबद्धः । यथा वा सन्तः सच्चरितोदयव्यसनिनः प्रादुर्भवद्यन्त्रणाः सर्वत्रैव जनापवादच किता जीवन्ति दुःखं सदा । अव्युत्पन्नमतिः कृतेन न सता नैवासता व्याकुलो युक्तायुक्तविवेकशून्यहृदयो धन्यो जनः प्राकृतः ।। २२६ ७२. लेश अलंकार १३८ - जहाँ दोष तथा गुण को क्रमशः गुण तथा दोष के रूप में कल्पित किया जाय, वहाँ लेश नामक अलंकार होता है । जैसे, हे तोते, अन्य सभी पक्षियों के स्वच्छन्दचारी होने पर तुम पिंजरे में बन्द कर दिये जाते हो, यह तुम्हारी मीठी वाणी का फल है । दोष की गुणस्वकल्पना और गुण की दोषत्वकल्पना को लेश कहते हैं । इसका उदा हरण 'अ खिलेषु' आदि है, जिसमें किसी पिता का विद्वान् पुत्र इसलिए राजधानी में रह रहा है, कि वह राजा को प्रिय है, उसे देखकर उसके दर्शन से उत्कण्ठित पिता के द्वारा अपने पुत्र के प्रति अप्रस्तुतप्रशंसारूप उक्ति है । इस उक्ति के प्रथमार्ध में दूसरे पक्षियों के मधुर वाणी न बोलने के दोष को स्वच्छन्द विचरण करने के गुण के रूप में वर्णित किया गया है । द्वितीयार्ध में शुक के मधुर भाषण रूप गुण को पिंजरे में बँध जाने के हेतु रूप दोष के रूप में वर्णित किया गया है । इस पद्य में व्याजस्तुति अलंकार नहीं समझना चाहिए। वस्तुतः यहाँ कवि का तात्पर्य अन्य पक्षियों की स्तुति के ब्याज से निन्दा करने तथा शुक की निन्दा के व्याज से स्तुति करने में नहीं हैं अपितु पुत्रदर्शन से उत्कण्ठित पिता के द्वारा दोष गुण को क्रमशः गुण दोष के रूप में वर्णित करना ही यहाँ कवि का अभीष्ट है । अथवा जैसे सच्चरित्रता के उदय की इच्छा वाले तथा इसीलिए सदा दुखी रहने वाले सज्जन लोग, जो सदा लोगों के द्वारा की गई निन्दा से डरा करते हैं, बड़े दुख व कष्ट के साथ जीवन यापन करते हैं । वस्तुतः सौभाग्यशाली तो वह प्राकृत ( अज्ञानी) पुरुष है, जो
SR No.023504
Book TitleKuvayalanand
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBholashankar Vyas
PublisherChowkhamba Vidyabhawan
Publication Year1989
Total Pages394
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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