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________________ २२४ कुवलयानन्दः अनेनैव क्रमेणोदाहरणान्तराणि, यदयं रथसंक्षोभादंसेनांसो निपीडितः । एकः कृती मदङ्गेषु, शेषमङ्ग भुवो भरः॥ अत्र नायिकासौन्दर्यगुणेन तदंसनिपीडितस्य स्वांसस्य कृतित्वगुणो वर्णितः ।। लोकानन्दन ! चन्दनद्रुम ! सखे ! नास्मिन् वने स्थीयतां . दुर्वशैः परुषैरसारहृदयैराक्रान्तमेतद्वनम् । ते ह्यन्योन्यनिघर्षजातदहनज्वालावलीसंकुला न स्वान्येव कुलानि केवलमहो सर्वं दहेयुर्वनम् ।। अत्र वेणूनां परस्परसंघर्षणसंजातदहनसंकुलत्वदोषेण वननाशरूपदोषो वणितः। दानार्थिनो मधुकरा यदि कर्णताले__ दूरीकृताः करिवरेण मदान्धबुद्धया । __इन्हीं चारों के क्रमशः दूसरे उदाहरण दे रहे हैं: (किसी एक के गुण के द्वारा दूसरे के गुण के वर्णन का उदाहरण ) कोई नायक नायिका के साथ रथ पर जा रहा था। रथ के हिलने से उसका कन्धा नायिका के कन्धे से टकरा गया था। अपने कन्धे के सौभाग्य गुण की प्रशंसा करता नायक कह रहा है। रथ के हिलने के कारण यह मेरा कन्धा उस (नायिका) के कन्धे से टकरा गया था। अतः मेरे सभी अंगों में यही अकेला अंग सफल मनोरथ है, बाकी अंग तो पृथ्वी के लिए भारस्वरूप हैं।' ___ यहाँ नायिका के सौंदर्य गुण के द्वारा उसके कन्धे से टकराये हुए नायक के अपने कंधे के सौभाग्य गुण का वर्णन किया गया है। अतः यह उल्लास के प्रथम भेद काउदाहरण है। (किसी एक के दोष के द्वारा दूसरे के दोष के वर्णन का उदाहरण ) कोई कवि चन्दन के वृक्ष से कह रहा है। 'संसार को प्रसन्न करने वाले, हे चन्दन के वृक्ष, मित्र तुम इस वन में कभी नहीं ठहरना। यह वन कठोर हृदयवाले (शून्य हृदय वाले) कठोर बांस के पेड़ों (बुरे वंश में उत्पन्न लोगों) से छाया हुआ है ये वांस इतने दुष्ट हैं कि एक दूसरे से परस्पर टकराने से उत्पन्न अग्नि की ज्वाला से वेष्टित होकर केवल अपने कुल को ही नहीं, अपितु सारे वन को जला डालते हैं। (प्रस्तुत पद्य में अप्रस्तुतप्रशंसा अलंकार भी है। यहाँ चन्दन-वेणुगत अप्रस्तुत वृत्तान्त के द्वारा सजन-दुर्जन व्यक्ति रूप प्रस्तुतवृत्तान्त की व्यंजना हो रही है। कोई कवि किसी सजन से दुष्टों के साथ से बचने का संकेत कर रहा है, जो केवल अपना ही नहीं दूसरों का भी नाश करते हैं।) यहाँ बांसों के परस्पर टकराने से उत्पन्न अग्नि से वेष्टित होने रूप दोप के द्वारा बननाश रूप दोष का वर्णन किया गया है, अतः यह उल्लास के द्वितीय भेद का उदाहरण है। (किसी के गुण के द्वारा दूसरे के दोष के वर्णन का उदाहरण ) कोई कवि हाथी की मूर्खता व मदांधता का वर्णन कर रहा है। यदि गजराज ने मदांध बुद्धि के कारण अपने कर्णतालों के द्वारा मद जल के इच्छुक (याचक) भौंरों को हटा
SR No.023504
Book TitleKuvayalanand
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBholashankar Vyas
PublisherChowkhamba Vidyabhawan
Publication Year1989
Total Pages394
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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