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________________ २१६ कुवलयानन्दः विषयिवाचकैस्तत्तत्पदैविषया लक्ष्यन्त इति भेद इति चेत्तर्हि इहापि प्रस्तुतगतादप्रस्तुतवृत्तान्तरूपाद्वाक्यार्थात्तद्गतप्रस्तुतवृत्तान्तरूपो वाक्यार्थोऽवगम्यत इत्येवातिशयोक्तितो भेदोऽस्तु । वस्तुतस्तु, सोऽपूर्वो रसनाविपर्ययविधिस्तत्कर्णयोश्चापलं दृष्टिः सा मदविस्मृतस्वपरदिक्किं भूयसोक्तेन वा ? | पूर्व निश्चितवानसि भ्रमर ! हे यद्वारणोऽद्याप्यसावन्तःशून्यकरो निषेव्यत इति भ्रातः ! क एष ग्रहः १ ॥' (भल्ल. श. १८) इत्याचप्रस्तुतप्रशंसोदाहरणे प्रथमप्रतीतादप्रस्तुतवाक्यार्थात् प्रस्तुतवाक्यार्थोऽवगम्यत इत्येतन्न घटते; अप्रस्तुते वारणस्य भ्रमरासेव्यत्वे कर्णचापलमात्रस्य भ्रमरनिरासकरणस्य हेतुत्वसम्भवेऽपि रसनाविपर्ययान्तःशून्यकरत्वयोहेतुत्वा - उन उन पदों के द्वारा विषयों (प्रस्तुत पदार्थों) की लक्षणा से प्रतीति नहीं होती है, अतः उन दोनों में परस्पर भेद है, तो यहाँ (ललित अलङ्कार में) भी प्रस्तुत के प्रसंग में वर्णित अप्रस्तुत वृत्तान्तरूप वाक्यार्थ से प्रस्तुतवृत्तान्तरूप वाक्यार्थ की व्यञ्जना हो जाती है, अतः ललित का अतिशयोक्ति से अन्तर हो ही जाता है। इस प्रकार ललित को अतिशयोक्ति से भिन्न अलङ्कार सिद्ध कर सिद्धान्तपक्षी उस पूर्वपक्षी मत पर अपना निर्णय देता है, जिसमें अप्रस्तुतप्रशंसा का आधार प्रथम प्रतीत अप्रस्तुतवाक्यार्थ से प्रस्तुत वाक्यार्थ की व्यञ्जना माना गया है। इसका विवेचन करने के लिए वह पहले अप्रस्तुतप्रशंसा के उदाहरण को लेकर उसके अप्रस्तुत तथा प्रस्तुत वाक्याथ को लेता है:_ 'इसके वैसे ही अपूर्व रसना विपर्ययविधि (जिह्वापरिवृत्ति, विपरीत बात कहने की आदत) है, वैसी ही कानों की चपलता (दुष्प्रभुपत में, कच्चे कान का होना) है, वही मद (गर्व) के कारण मार्ग (उचितानुचित) को विस्मृत करने वाली दृष्टि है। और अधिक क्या कहें ? हे भौंरे, तुमने यह सब पहले ही विचार लिया है कि यह अभी भी वारण (हाथी, लोगों का अनादर करने वाला) है, इतना होने पर भी भाई, तुम इस अन्तःशून्य शुण्डादण्ड वाले (रिक्तहस्त ) व्यक्ति की सेवा कर रहे हो, इसमें तुम्हारा क्या आग्रह है? ___ यह अप्रस्तुतप्रशंसा अलङ्कार का उदाहरण है। पूर्वपक्षी के मतानुसार यहाँ भी पहले अप्रस्तुत (हस्तिरूप) वाक्याथ की प्रतीति होगी, तदनन्तर उससे (दुष्प्रभुरूप) वाक्यार्थ की व्यंजना होगी। किंतु यह बात यहाँ लागू नहीं होती। सिद्धान्तपक्षी का कहना है कि यहाँ यह नियम घटित नहीं होता। हम देखते हैं कि इस पद्य में हाथी का भौरे की सेवा के योग्य न होना अप्रस्तुत है, इसका हेतु यह है कि वह कानों का चंचल है तथा भौंरों का अनादर करने वाला है, इस हेतु के होने पर भी रसनाविपर्यय तथा अन्तःशून्यकरत्व ये दो हेतु भ्रमरासेन्यत्व के कारण नहीं हो सकते, साथ ही मद का होना भी भ्रमरासेव्यत्व का हेतु नहीं, बल्कि उलटे वह तो भ्रमरसेव्यत्व का हेतु है (भाव यह है, भौरे के द्वारा हाथी की सेवा नहीं की जानी चाहिए, इसका साक्षात् हेतु केवल इतना ही जान पड़ता है कि हाथी कानों की चंचलता धारण करता है तथा भौरों को
SR No.023504
Book TitleKuvayalanand
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBholashankar Vyas
PublisherChowkhamba Vidyabhawan
Publication Year1989
Total Pages394
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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