SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 308
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ सम्भावनालङ्कारः २११ कार्यातिशयाहेतौ तद्धेतुत्वप्रकल्पनं प्रौढोक्तिः। यथा तमालगतनैल्यातिशया. हेतौ यमुनातटरोहणे तद्धेतुत्वप्रकल्पनम् । यथा वा कल्पतरुकामदोग्ध्रीचिन्तामणिधनदशङ्खानाम् । रचितो रजोभरपयस्तेजःश्वासान्तराम्बरैरेषः । अत्र कल्पवृक्षायेकैकवितरणातिशायिवर्णनीयराजवितरणातिशयाहेतौ कल्पवृक्षपरागादिरूपपञ्चभूतनिर्मितत्वेन तद्धेतुत्वप्रकल्पनं प्रौढोक्तिः ।। १२५ ॥ ६४ सम्भावनालङ्कारः सम्भावना यदीत्थं स्यादित्यूहोऽन्यस्य सिद्धये । यदि शेषो भवेद्वक्ता कथिताः स्युर्गुणास्तव ॥ १२६ ।। यहाँ समुद्रमन्थन के समय दुग्धसमुद्र स उठे अमृत के अणुओं को नाना प्रकार की औषधियों से जोड़कर ब्रह्मा ने भगवान् की दयादृष्टि की सृष्टि की है, इस उक्ति में प्रौढोक्ति अलंकार पाया जाता है। जहाँ किसी कार्यातिशय के अहेतुभूत पदार्थ में उसकी हेतुता कल्पित की जाय वहाँ प्रौढोक्ति होती है। जैसे ऊपर के उदाहरण में तमालों की नीलता का कारण कलिन्दजा तीर पर होना नहीं है, किन्तु कचि ने उस नीलता का कारण कलिन्दजा के तीर पर उगना कल्पित किया है, अतः यहाँ प्रौढोक्ति है। अथवा जैसेकिसी राजा की दानशीलता का वर्णन है। यह राजा कल्पवृक्ष, कामधेनु, चिन्तामणि, कुबेर तथा शंख के क्रमशः परागसमूह, दुग्ध, तेल, श्वास तथा आभ्यन्तर आकाश के द्वारा बनाया गया है यहाँ कवि इस बात की व्यञ्जना कराना चाहता है कि राजा कल्पवृक्ष आदि एक एक दानशील पदार्थ से भी अधिक दानशील है, इस दानशीलता के अतिशय के कारण रूप में; कवि ने कल्पवृक्षपराग आदि पाँच पदार्थों को मिलाकर राजा की रचना की है, यह कह कर उन पाँचों पदार्थों के संमिश्रण में उस दानशीलतातिशय का हेतु कल्पित किया है। अतः यहाँ प्रौढोक्ति अलङ्कार है। ६४. सम्भावना अलङ्कार ५२६-जहाँ किसी कार्य की सिद्धि के लिए 'यदि ऐसा हो तो यह हो सकता है। इस प्रकार की कल्पना की जाय, वहाँ सम्भावना अलङ्कार होता है । जैसे, यदि स्वयं शेष गुणों के वक्ता बने तो आपके गुण कहे जा सकते हैं। टिप्पणी-मम्मट, रुय्यक तथा पण्डितराज ने सम्भावना अलंकार नहीं माना है। वे इसका समावेश अतिशयोक्ति के तृतीय भेद में करते हैं। - यहाँ 'यदि शेष वक्ता बने, तो गुण कहे जा सकते हैं। इस अंश में सम्भावना है।
SR No.023504
Book TitleKuvayalanand
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBholashankar Vyas
PublisherChowkhamba Vidyabhawan
Publication Year1989
Total Pages394
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy