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________________ २.० कुवलयानन्दः दाहरणे च प्रतीयमानार्थस्यापि हेतुकोट चनुप्रवेशो दृश्यते । पशुति ह्यविवेकित्वाभिप्रायगर्भम् ; विदुषीत्यस्य प्रतिनिर्देश्यत्वात् । त्रिलोचन इति च कन्दर्पदाह तृतीयलोचनत्वाभिप्रायगर्भम् । कन्दर्पजयोपयोगित्वात्तस्य । सत्यम् ; तथापि न तयोः परिकर एवं किंतु तदुत्थापितं काव्यलिङ्गमपि ॥ प्रतीयमानाविवेकित्वविशिष्टेन पशुनाप्यपुरस्कृतत्वस्यानेकपदार्थस्य, प्रतीयमाकन्दर्पदाहक भाव तृतीयलोचन विशिष्टस्य शिवस्य चित्ते संनिधानस्य च वाक्यार्थस्य वाच्यस्यैव हेतुभावात् । न हि तयोर्वाच्ययोर्हेतुभावे ताभ्यां प्रतीयमानं मध्ये किंचिद्वारमस्ति । यथा 'सर्वाशुचि निधानस्य' इत्यादिपदार्थपरिकरोदाहरणे सर्वाशुचिनिधानस्येत्यादिनाऽनेकपदार्थेन प्रतीयमानं शरीरस्यासंरक्षणीयत्वम् । तथा च वाक्यार्थपरिकरोदाहरणेऽपि पर्यायोक्तविधया तत्तद्वाक्यार्थेन 'त्रिलोचन' पद से भी 'कामदेव को भस्म करने वाले शिव के तीसरे नेत्र' की व्यंजना होती है, क्योंकि वही नेत्र कामदेव को जीतने में उपयोगी हो सकता है। इस प्रकार यहाँ तत्तत् प्रतीयमान अर्थ भी तत्तत् समर्थनीय अर्थ के समर्थक हेतु बने दिखाई पड़ते हैं । ( पर यहाँ तो दोनों स्थानों पर परिकर अलंकार है इसलिए काव्यलिंग के उदाहरण रूप में इन दोनों स्थलों का उपन्यास ठीक नहीं जान पड़ता । ) दलील का उत्तर देते हुए सिद्धान्तपक्षी कहता है कि तुम्हारा यह कहना कि यहाँ व्यंग्यार्थ प्रतीति वाच्योपस्कारक है तथा यहाँ परिकर अलंकार है, ठीक है, किंतु इन स्थलों पर केवल परिकर अलंकार ही नहीं है, वस्तुतः जहाँ परिकर अलंकार स्वयं गौण बनकर काव्यलिंग की प्रतीति ( उपस्थिति ) भी कराता है | अतः प्रमुख अलंकार काव्यलिंग है । क्योंकि आप का परिकर वाला व्यंग्यार्थ तो केवल हेतु ही बना रहता है । टिप्पणी- तथा चोभयत्र परिकरालंकारस्वात्काव्यलिंगोदाहरणत्वमनुपपन्नमिति भावः । ( अलंकारचन्द्रिका पृ० १३९ ) ( वही पृ० १३९ ) . व्यंग्यस्य हेतुकोटावेवानुप्रवेशादिति भावः । हम देखते हैं कि 'पशुनाप्यपुरस्कृतेन ततुलनामिच्छतु चामरेण कः' इस उदाहरण व्यंग्यार्थरूप अविवेकित्व ( ज्ञानहीनता ) से युक्त पशु के द्वारा भी अपुरस्कृत ( अनाहत ) इस अनेक पदार्थ में वाच्यार्थ का हेतुभाव पाया जाता है, इसी तरह व्यग्यार्थरूप काम देवदाहक तृतीयलोचनविशिष्ट शिव के चित्त में रहने रूपी वाक्यार्थ के द्वारा वाच्यार्थ की हेतुता स्वीकार की गई है। इसलिए पदार्थ वाक्यार्थ के दोनों वाच्यार्थी के क्रमशः हेतु बनने बीच में कोई प्रतीयमान अर्थ नहीं पाया जाता। भाव यह है, आपके द्वारा अभीष्ट व्यंग्यार्थ इन स्थलों में स्वयं हेतुभूत पदार्थ या वाक्यार्थ का विशेषण बन गया है, तदनंतर व्यंग्यार्थ विशिष्ट पदार्थ या वाक्यार्थ समर्थनीय वाच्यार्थ के हेतु बनते हैं । यदि प्रतीयमान अर्थ प्रथम (वाय) पदार्थ या वाक्यार्थ के बाद प्रतीत होकर अपने द्वारा वाच्यार्थ प्रतीति कराता अर्थात् स्वयं पदार्थ वाक्यार्थ विशिष्ट होता तो यहाँ पूर्वपक्षी का मत सम्मान्य हो सकता था, किंतु हम देखते हैं कि पदार्थ वाक्यार्थ ( हेतु ) तथा वाच्यार्थ ( हेतुमान् ) के बीच में कोई प्रतीयमान अर्थ नहीं पाया जाता । अतः यहाँ परिकर का स्थल न होकर कालिंग का ही क्षेत्र है । इस संबंध में परिकरालंकार के उदाहरणों को लेकर बताया जा रहा है कि वहाँ व्यंग्यार्थ सदा पदार्थ या वाक्यार्थ का विशेष्यरूप होकर प्रतीत होता है, इन स्थलों की तरह विशेषण रूप बनकर नहीं आता । परिकरालंकार के दो उदाहरण पीछे में
SR No.023504
Book TitleKuvayalanand
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBholashankar Vyas
PublisherChowkhamba Vidyabhawan
Publication Year1989
Total Pages394
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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