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________________ १८८ कुवलयानन्दः शेते शुष्यति ताम्यति प्रलपति प्रम्लायति प्रेवति भ्राम्यत्युल्लुठति प्रणश्यति गलत्युन्मूर्च्छति त्रुट्यति ।। अत्र कासांचित्क्रियाणां किंचित्कालभेदसंभवेऽपि शतपत्रपत्रशतभेदन्यायेन योगपद्यं विरहातिशयद्योतनाय विवक्षितमिति लक्षणानुगतिः ।। ११५ ।। अहं प्राथमिकामाजामेककार्यान्वयेऽपि सः । कुलं रूपं वयो विद्या धनं च मदयन्त्यमुम् ॥ ११६ ॥ यत्रैकः कार्यसिद्धिहेतुत्वेन प्रक्रान्तस्तत्रान्येऽपि यद्यहमहमिकया खलेकपोतन्यायेन तत्सिद्धिं कुर्वन्ति सोऽपि समुच्चयः । यथा मदे आभिजात्यमेकं समग्रं कारणं ताहगेव रूपादिकमपि तत्साधनत्वेनावतरतीति । यथा वाप्रदानं प्रच्छन्नं गृहमुपगते संभ्रमविधि निरुत्सेको लक्ष्म्यामनभिभवगन्धाः परकथाः। वह सोती है, सूखती है, जलती है, चिल्लाती है, कुम्हलाती है, काँपती है, घूमती है, लोटती है, नष्ट हो रही है, गल रही है, मूर्छित हो रही है तथा टूट रही है।' यहाँ नायिकागत अनेक क्रियाओं का एक साथ वर्णन किया गया है। यहाँ कई क्रियाएँ एक साथ नहीं की जा सकती, अतः उनमें कालभेद का होना संभव है, तथापि कवि ने शतपत्रपत्रभेदन्याय के आधार पर विरहिणी नायिका के विरहाधिक्य को सूचित करने के लिए सबका एक साथ वर्णन कर दिया है। इस सरणि को मानने पर इस उदा. हरण में समुच्चय का लक्षण घटित हो जाता है। टिप्पणी-पंडितराज जगन्नाथ ने भी इस बात की पुष्टि करते हुए कहा है :-'तेन किंचित्कालभेदेऽपि न समुच्चयभङ्गः।' ( रसगंगाधर पृ० ६६१ ) ११६-अब समुच्चय के दूसरे भेद को बताते हैं: जहाँ अनेक हेतुओं से किसी एक कार्य की उत्पत्ति हो सकती हो और कवि उस स्थान पर सभी हेतुओं का एक साथ इस तरह वर्णन करे, जैसे प्रत्येक हेतु अपने आप को प्राथमिकता देता हुआ अहमहमिका कर रहा हो, वहाँ भी समुच्चय अलंकार होता है । जैसे, इस व्यक्ति को कुल, रूप, वय, विद्या तथा धन के कारण घमण्ड हो रहा है। जहाँ एक ही वस्तु कार्यसिद्धि के कारण के रूप में पर्याप्त हो और वहाँ अन्य कारण भी खलेकपोतिकान्याय से अहमहमिका से उस कार्य की सिद्धि करें, वहाँ भी समुच्चय होता है। जैसे उपर्युक्त उदाहरण में अकेला अभिजात कुल हो व्यक्ति को घमण्डी बना देता है, रूपादि भी इसी तरह व्यक्ति को घमण्डी बनाने के कारण है,उनको भी यहाँ मद के साधन के रूप में वर्णित किया गया है । अतः यहाँ समुच्चय का अन्यतर भेद है । अथवा जैसे 'गुप्त दान देना, घर में आये अतिथि का सम्मान करना, सम्पत्ति के होने पर भी मद न करना, दूसरों की बात करते समय निंदा की गंध न आने देना, किसी का उपकार करके चुप रहना (उपकार करने की डींग न मारना), सभा के समक्ष (लोगों के सामने) भी अन्य व्यक्ति के द्वारा किये उपकार को स्वीकार करना तथा शास्त्रों में अत्यधिक प्रेम सब लक्षण किसी व्यक्ति के कुलीनत्व का संकेत करते हैं।
SR No.023504
Book TitleKuvayalanand
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBholashankar Vyas
PublisherChowkhamba Vidyabhawan
Publication Year1989
Total Pages394
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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