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________________ १८६ कुवलयानन्दः ५४ विकल्पालङ्कारः विरोधे तुल्यबलयोर्विकल्पालंकृतिर्मता । सद्यः शिरांसि चापान्वा नमयन्तु महीभुजः ॥ ११४ ॥ अत्र संधिविग्रहप्रमाणप्राप्तयोः शिरश्चापनमनयोयुगपदुपस्थितयोर्युगपत्कर्तुमशक्ययोर्विकल्पः। यथा वापतत्यविरतं वारि नृत्यन्ति च कलापिनः । ५४. विकल्प अलङ्कार ११४-जहाँ कवि अपनी वचनचातुरी के द्वारा समान बलवाले दो विरोधी पदार्थों का एक साथ वर्णन करे, वहाँ विकल्प अलङ्कार होता है जैसे, (कोई राजा अन्य राजाओं को यह सन्देश भेजता है) या तो राजा लोग (अधीनता स्वीकार कर) अपने सिर झुका दें या (युद्ध के लिए तैयार होकर) धनुषों को झुका दें। टिप्पणी-काव्यप्रकाशकार मम्मटाचार्य ने विकल्प अलंकार को नहीं माना है। उद्योतकार नागेश ने काव्यप्रदीप की टीका में इसका संकेत करते हुए बताया है कि विकल्पालंकार में कोई चमत्कार नहीं होता, अतः इसमें हारादि की तरह अलंकारत्व नहीं माना जा सकता। कुछ लोग ऐसे स्थलों पर सन्देह अलंकार मानते हैं जिसमें 'मात्सर्यमुत्सार्य की तरह निश्चय व्यंग्य है। यत्त 'इह नमय शिरः कलिंगवद्वा समरमुखे करहाटवद्धनुर्वा' इत्यत्र विकल्पालङ्कारः पृथगेव । वा शब्दश्चात्र कल्पान्तरपरः । असामर्थ्य कलिङ्गनृपतिवच्छिरो नमय, सति सामध्ये करहाटनृपतिवद्धनुर्नमयेत्यर्थात् । व्यवस्थितश्चायं विकल्प इति । तन्न । वर्णनीयोत्कर्षाना. धायकत्वेनैतस्यालङ्कारत्वे मानाभावात्। उपकुर्वन्ति तं सन्तमित्यादिसामान्यलक्षणाभावात्। एतेन नमनरूपैक क्रियाकमैकत्वेनौपम्यं गम्यमानमलकारता बीजमित्यपास्तम् । तादृशौपम्यस्याचारुत्वाच्च । अन्ये तु अत्रापि सन्देह एव भ्यंग्यस्तु निश्चयो मात्सर्यमुत्सार्येतिवदित्याहुः।' काव्यप्रकाश ( उद्योत टाका पृ० ४६४ ) । इस सम्बन्ध में यह संकेत कर देना आवश्यक होगा कि अलंकारसर्वस्वकार रुय्यक ने विकल्प को अलग अलंकार माना है। तुल्यबलविरोधो विकल्पः ( अलंकार सर्वस्व पृ० १९८)। इसके संकेत में रुय्यक ने बताया है कि यह अलंकार यद्यपि प्राचीनों ने नहीं माना है, पर समुच्चय अलंकार का विरोधी होने के कारण हमने दिया है। तस्मात्समुचयप्रतिपक्षभूतो विकल्पाख्योऽलङ्कार पूर्वैरकृतविवेकोऽत्र दर्शित इत्यवगन्तव्यम् ( वही पृ० २०० ) रुय्यक ने इसका एक उदाहरण 'भक्तिप्रसविलोकनप्रणयिनी...."युष्माकं कुरुतां भवार्तिशमनं नेत्रे तनुर्वा हरेः' दिया है, जिसमें पण्डितराज विकल्प नहीं मानते । क्योंकि हरि का शरीर तथा नेत्रद्वय दोनों में भवार्तिशमनक्रिया के सम्बन्ध में कोई परस्परविरोध नहीं पाया जाता । तञ्चिन्त्यम् । भवार्तिशमने तनुनेत्रद्वन्द्वयोर्द्वयोरपि युगपत्कर्तृत्वे विरोधा. भावात् विकल्पानुस्थानात् । ( रसगंगावर पृ० ६५९ ) __ यहाँ सन्धि अथवा विग्रह (युद्ध) से संबद्ध शिरोनमन या चापनमन दोनों का एक साथ वर्णन किया गया है। शत्रु राजा दोनों कार्यों को एक साथ नहीं कर सकता क्योंकि ये तुल्यबल तथा परस्पर विरुद्ध कार्य हैं, अतः इनका युगपत् वर्णन करने के कारण यहाँ विकल्प अलङ्कार है। अथवा जैसेकोई विरहिणी कह रही है। इस वर्षाकाल में निरन्तर जलवृष्टि हो रही है और मयूर
SR No.023504
Book TitleKuvayalanand
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBholashankar Vyas
PublisherChowkhamba Vidyabhawan
Publication Year1989
Total Pages394
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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